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( २६९) व्यवस्था किसीसे तोभी होती है, फिर वे उसे ईश्वर, नेचर, स्वभाव, कुदरत, सुदा, गोड, चाहे सो नाम दें।
कितनेक लोग निरीश्वरवादी और कितनेक ईश्वरवादी हैं । दोनोंके अलग २ कयनको सुनकर फिर तुलना की जाय, कि किसका क्थन विशेष सयुक्तिक है । एक पक्षकी समझमें ईश्वरको मानने वाले और उसकी भक्ति करने वाले जीरन भर ईश्वर सम्बधमें जो कुछ करते है, वह सब व्यर्य है, अर्थात् उनके जीवनका एक भाग निरर्थक जानेके सिबाय उन्हे अन्य कोई हानि नहीं है यदि यही पक्ष सही ठहरे, तो ईश्वरसे सम्बर रखने वाले इसी वातसे अपना समाधान करलेंगे कि जिनना समय हमारा इस विषयमें न्यतीत हुआ उससे यदि कोई लाभ न हुआ, तो उनके हायसे कोई धुरा कृत्य भी नहीं हुआ है । परन्तु जो दूसरा पक्ष सत्य निकल जाय, तो निरीश्वर यादी जन्मभर अपने परम कर्तव्यसे विमुख रहने के कारण महान् अपराधी ठहरते हैं। ऐसी दशामें ये लोग अपने अपराधके दढ से रिस प्रकार छूट सकते हैं ? इन दोनों पक्षकी प्रयक २ बातोसेमी ईश्वरको मानने वालेकी वात ही विशेष सयक्तिक मालम होती है।
एक उदाहरण ऐसा है कि कोई ऐक मनुष्य कहीसें अपने गारी जाताधा। चलते • उसको उस गारमे कुछ दूरी