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( २८२ ) अर्थात् परमेश्वरकी भक्ति कोई नहीं करते हैं, परन्तु __ भक्तिसे मिलने वाला जो परमेश्वरका ऐश्वर्य है उसकी भक्ति
सब कोई करते हैं। जो ऐश्वर्यकी इच्छा न करके परमेश्वरही की सच्चे मनसे भक्ति करें तो उन्हें ऐश्वर्य आदि जो कुछ चाहिये आपही मिलजाता है । सांसारिक पदार्थोंकी औरसे लालसा छोड़कर शुद्ध अन्तःकरणसे परमेश्वरकी भक्ति करनेके उपरान्त, जो उसका फल प्राप्त न हो तो फिर सारे ज
गतमे ऐसा ढंढेरा फेर देना ठीक होगा कि ईश्वरका मानना __ और उसकी भक्ति करना वृथा है । परन्तु कुछ भी करके देखे विना योंही कुतर्क करते वेठना केवल अनुचितही नहीं पर लां छनरपद है। वास्तवमें परमेश्वरकी भक्ति करना ऐसा सर्वोस्कृष्ट उपाय है कि जो आजतक किसीकोभी निष्फल हुआ सुनाई नहीं दिया है । जो मनुष्य ऐसे उपायके साधनोमें तन मनसे तत्पर बने रहते है, वही इस जगतमे धन्य हैं ! ___ कई ऐसेभी कोते विचारके मनुष्य हैं जो यही कहा करते है कि मनुष्यकी बाल्यावस्था विद्याभ्यासके, युवावस्था सांसारिक कामोंके और केवल वृद्धावस्था परमेश्वरकी भक्ति कर नेके लिये है । जरा सोचनेसे यह बात ध्यानमे आजावेगो कि उनका यह कथन कितना कुछ सत्य है । यदि मनुष्यको मुख सभी अवस्थाओंमें आवश्यक है तो ईश्वरकी भक्तिभी सब अवस्थाओंमें आवश्यक होसकती है। क्या बाल्यावस्था और