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( २७२ ) पग • और क्षण २ में जप कि सामान्य बुद्धिवालेको स्पष्ट होता है, तो फिर शुद्ध अन्त करण पाले महा पुरुषोंगो वह प्रत्यक्ष हो जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ।
हम ऊपर कह आये है कि जीव मान परतन, दुखी और अल्प ज्ञानी है | थोडी देरही यदि किसीफे तामें रहना पडे तो अपनी तवियत अकुलाय जाती है इस कारण कि अपनेको परतत्रता प्रिय नहीं है । सारा दिन पाठशाला किंवा कचहरीम रहना परतनता होनेसे, जब अपन वहासे छुटते है तब अपना मन कुछ प्रफुल्लित होजाता है । पक्षी पीजरेमें रखा हो और जर कभी पीजरेका द्वार खुला रहजाय तो यह उड जाता है । पशुभी जब खूटेसे छुटता है तो चौकडी
भरता हुआ आनन्दसे मन चाहे उस तरफ दौडने लगता है ___इन सारी वातोंका कारण यही है कि स्वतनता सबहीको व
हुत प्यारी लगती है। जिस प्रकार परतत्रता अनेक दु'सोंका कारण है, उसी प्रकार स्वतनता सम्पुर्ण सुखोंका हेतु होनेसे मत्येक प्राणी स्वतन होनेकी इच्छा करते हैं।
जैसे अपनेको स्वतत्रता प्रिय है वैसेही मुखभी बडा मुहाता है । जन्म लेते है तबसे मरनेतक अपना सुख प्राप्तिका प्रयत्न रातोदिन चलता रहता है, कारण इसका यही है कि जपन दु ग्वी है इस लिये मुखी होनेका उद्योग करते हैं,