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( २७६ ) जैसे धनकी इच्छा वाले घनकी भक्ति करते हैं, वैसेही स्वनंत्रताकी इच्छा वालोंकोभी स्वतंत्रताकी भक्ति करना चाहिये । ठंड उड़ानेके लिये यदि कोई दीपकका सेवन करे तो दीपक उसकी शक्तिके अनुसार किंचित् मात्रही ठंड उडा सकता है । सम्पुर्ण ठंड उड़ानेको तो अच्छी प्रज्वलित अग्निही आवश्यक है । इसी प्रकार स्वतंत्रता प्राप्त करनेके लिये अपन जगतकी अन्य वस्तुओंकी सेवा अर्थात् भक्ति करें, तो वे उनकी शक्ति के अनुसारही फल दे सकती हैं। वे स्वयम्ही परतंत्र हैं अर्थात् जब कि वेही पुर्ण स्वतंत्र नहीं हैं, तो फिर अपनेको स्वतंत्रता कैसे दे सकती हैं । जो पुर्ण रूपसे स्वतंत्र हो उसीकी सेवा अर्थात् भक्ति करनेसे सम्पुर्ण स्वतंत्रता मिलना शक्य है । हम इस वातको पहिलेही सिद्ध करचुके हैं कि पुर्ण स्वतंत्र तो केवल एक परमेश्वरही है । इस लिये अपनेको उस पुर्ण स्वतंत्र परमात्माकी भक्ति करनाही इष्ट है ।
अपन दुःखसे छुटनेकी इच्छा करते हैं तो फिर जिस स्थानमें सुख हो वहां जानेसे अपने दुःखकी निवृत्तिका उपाय हो सकता है। परन्तु कोई यह कहे कि अच्छा २ भोजन करनेसे, उत्तमोत्तम वस्त्रादि पहिननेसे, वड़ी २ इमारतों में निवास करनेसे, गाड़ी घोड़े दौड़ानेसे और ऐसे ही कई प्रकारके भोग विलास करनेसे जब सुख मिलता है तो फिर इन्हें