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( १८५) नछे चित्ते पातमो यान्ति नाशम् ।। तस्माचित्तं सर्वदा रमणीय ।
स्वस्ये चित्ते बुद्धय समपन्ति ।। अर्थ-पातुसे बधाहुआ यह शरीर मनके आधीन है-चित्त नाश पानेसे धातुकाभी नाग होता है इससे चित्तका सदा रक्षन करना चाहिय-चित्त अन्डा होता है तभी बुद्धि पैदा होती है।
दूसरे लोगोके विचार मुधरे हुए लोग जर अपनी आरतोंको रोती कूटती देखते है तब वे लोग अपने दस दुष्ट रिवाजकी हमी करते है
और उनके दिलमें ऐसे विचार पंग होते हैं कि (इन लोगों) की ओरतें मुर्ख हैं और निर्लज, पिनादयावाली, ढोंगी और असल्प है ससारमा स्वाभाविक नियम यह है कि घरको गोभाना स्त्रीरा काम है परन्तु ( अपनरो) अपने घरकी शोभा कितनी है जो कोई अपनी स्वीयोंकी इस रीतिको देखपर मन करता भाइयो । अपन क्या जवार दंग? उस वक्त अपन सिद्ध हो जायेंगे इमलिये स्त्रीयाम से इस निर्लन पालका नाश हो ऐसा उपाय करनेके वास्ते नसर हो जाभो ।