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( १८७ ) छिन्नं छिन्न पुनरपि पुन स्वादु चैवेक्षुकांडम् । दग्धं दग्ध पुनरपि पुन कांचनं कांतवर्ण । न प्राणान्ते प्रकृतिविकृतिर्जायते चोत्तमानाम् ॥
अर्थ -बारवार चन्दनको घिसो तोभी वह सुगधीही मुगधी देता है, इसु (साठे) को चार • काटो तो भी वह स्वादिष्टता देती है, सोनेको कितनीही वार तपाओ तो भी उसका रंग शोभायमानही दीखाता है-ऐसेंही उत्तम पुरुषोंकी प्रकृतिमें माणत होनेपर भी फेराफार नहीं होताहरएक मारके दुःख वह सहन करते है. ऐसे समय धैर्य रखना यहही मुरय साधन है पैदा होता उसका नाशमी होता है यह पाठकगण समझतेही हैं तो मृयुके वक्त आप गहिले वन जाते हे यह मूर्खताकाही चिन्ह है।
नष्ट मृतमतिकातं नानुशोचति पडित । पडितानां च मूर्खाणां विरोपोय यत स्मृत ॥
अर्थ -जिस वस्तुका नाश हुआ, जो मनुष्य मरगया और जो पात होगई उसका गोर पडितजन नहीं करते-पडित और मूर्स में इतनाही फर्क है। ना प्राप्यमभिवांछति नष्टं नेच्छातिशोचितु । आपत्स्वपि न मुह्यतिनरा पडितबुद्धय ॥