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(( १०९ ), माया लोभ इन चारको कपाय करते है तथा मन वचन और कायाके व्यापारको योग कहते हैं यह पाच कर्म बन्धन के हेतु ( सस) है, इन्हें जैन शास्त्रमें आनवतच कहते है इनोके जरीये ज्ञानायरणीय आदि अष्टकमाँ का बन्धन होता है जात्रामा पूर्व पन्यकी अपेक्षासे कार्य और उत्तर नमकी अपेक्षासे कारण समझना चाहिये ! और नाय तथा आत्रका परस्पर कार्य कारण भार माननाही दुरुस्त है, क्योंकि विना बन्यो आश्रा नहीं हो सकता और पिना आश्रके बन्ध नहीं हो सकता. जैसे विना अकुरके वीन, व विना बीनकै अकुर नहीं हो सकना । पुण्य पापके बन्धन हेतु होनेसे आत्रके दो भेद लिये जाते है, शुभ कर्मका हेतु व अशुभ कर्मका हेतु मिथ्याल आगिको अपेक्षा इस्के अनेक भेदभी हो सक्ते है मन वचन कायाके व्यापार रुप आसवकी सिद्धि अपने आपकी अपेक्षा स्व सवदन संबंध है, और परपुरुपोंकी अपेक्षा कहीक प्रत्यक्षमे कहींक कार्यानुमानसे तो कहींक आगम प्रमाणसे जानी जाती है इति हे य आयतल ॥ अम छहा तत्व सार है। पूर्व फथित सख्याराले आस्रवोंका रोकना इस्को सवर कहते है। जैसे सम्पम् दर्शनद्वारा मिथ्यात्व रक जाता है, और चिरतिके द्वारा अविरति रूक जाती है। और प्रमाद परिहार तया प्रमाद दुर हो सका है। और क्षमा-पार्दर (निरामिमानपणा) आर्जव (सरलता) और निलमिता इनके द्वारा