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( १४८ ) पुरावा देने में आता है, कि जिसका अस्वीकार किसीसे होता नहीं।
सिद्धांतकार श्रीसय्यभवरि श्रीदशवकालिक मूत्रमें साधुने कैसी भाषा बोलना उसका ज्ञान कराने के वारते उस सबके सातमें अध्ययनकी ३६ मी गाथामें इस मुजब कहा है। तहेव संखडि नच्चा, किचं कजति नोवए ।
श्री हरिभद्रसूरिकृत वृत्तिःतथैव संखडि ज्ञात्वा संखड्यन्ते प्राणिनामापूंषि यो प्रकरण क्रियायां सा संखडी । तां ज्ञात्वा करणीयेति पिनादि निमित्तं कृत्यै वैपोति नो वदेत् । मिथ्यात्वोपबृंहण दोपात् ।।
मुनिको कैसी भाषा बोलना उसका यहाँपर प्रस्तुत प्रसंग है, उस प्रसंगमें मूल सूत्रकारने पहिले दूसरी बात कही और बादमें वे कहते हैं कि, संखडिन समझ कर वह करने योग्य है ऐसा मुनि नहीं बोले " इसका टीकाकार स्पष्टार्थ इस मुजब करने है कि वैसेहि संखडिन समझकर (माणीयों कि मनुष्यकी जो क्रिया करने में खंडित होते हैं उसका नाम संखडि अर्थात् जुत्ता) पित्रादिके निमित्तपर करनेके योग्य है ऐसा मुनि नहीं बोलते कारण कि ऐसा कहने में मिथ्यात्वरूपी वृद्धि होनेका दोपलगता है। . सिद्धांतकार मुनियोंको, नुकता या मृतभोजन करने योग्य