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( १७९) रिवाज मरनेके पीछे रोना कूटना हमारेमें अबतक विद्यमान है.
__ अपनी कोमकी औरतों के रोने कूटनेका अलग ही रिवाज है कि मुर्दा घरसे बहार हुआ के जैसे ज्वालामुखी पर्वत धधकता • बहार निकलता है उस प्रकार शिर और छाती कूटने लगती गरम लाज सर छोडके खुढे वारो सहित मुटती हैं यदि रोना कूटना सिखाने वाली अपनी कोम की स्त्रीयों को शिक्षक कहीजावे तो भी कोई हर्ज नहीं.
जिस घरमें कोई मर जावे तो उस घरकी स्त्रीका तो मरण हुआ, क्या मि दूसरी स्वीया रोनेके लिये आती है वो तो एकही दिन रोरो कर चली जाती परतु उस घरकी वीको नित्यही रोना पडता है, फिर वह घर कुलबान हो कि कुल हीन, घरकी स्त्रीके रोनेमें खामी पडे तो परस्त्रिया उसकी जातिम निन्दा करती है कि इसको तो रोना कूटना याद नहीं ऐसी छाप लगाती है ___अहा। रूहि कैसी बलवान है । यह रूढी ऐसी जमी है कि उसके सेवम अपने शरीरकी दरकार न रखते, परजातिमें जो निन्दा होती है उससे दरते नही, (काठियावाडमें यह रीति इतनी प्रचलित ह कि औरतें बदुत कटती है। वो उपदेश द्वारा चन्द की जारही है) और परलोकमें होनेवाली अवगतीका भजन महासे हो । ? धिकार है एसी नदीको।
रोना कटना यो दिनतक नहीं चलता, बहोतसी जगे