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भेजकर विनति की " मेरा धर अवश्य पावन करें" आपनेभी दक्षण जाना श्रेय समझकर शिष्योंके साथ रेलवे द्वारा रवाना होकर पांचोरा पधारगये और ब्रह्मचारी रविदत्तजीसे मिले. रविदत्तजीने गच्छ सबंधी वार्ता पूछी, उत्तरमें आपने फरमाया कि सूरीजी महाराजके वचनानुसार दोनोमाता लडते २ परलोक पास सिधारगये और थोडे दिनों में उनका वंशही भृष्ट होजायगा ऐसा अनुमान है. बातही वहीहुई वि० सं० १९५२ तक दोनोमाता (मुलतानचंद्रजी-कपूरचंद्रजी ) ओंके अनेक शिष्योंमेंसे एकभी नाम मात्रके लिये नहीं रहा-कई दीक्षा त्यागकर चलेगये और कई मरगये. जो लोक गुरुकी आज्ञा न माने उनका यही हाल होताहै. कहा है " गुरुराज्ञागरियसि" बनोटी निवासी श्रावक धूलचंद्रका रोग एवं पिशाच वाधा आपकी कृपासे दूर होगई और वह दृढ भावक होगया. पांचोरेमें कई दिनोंतक ठहरकर वहांसे स शिष्यपरिवार और ब्रह्मचारीजीके साथ आप खामगांव पधारे, खामगांमको बहुत रौजसे आना होने के कारण नगरवासियोंने इसवर्षके चातुर्मासमें याने सं. १९४९ में बडाभारी जलसा किया और रा १९५० के आषाढ शुक्लादशमीको आपके हाथसे वृहत् शिष्यकी दीक्षा हुई. दीक्षाकानाम आपने "वालचंद्र" मुनि रक्खा, सं. १९५२ का चातुर्मास आपका आकोले हुआ, इसी चातुर्मासके बाद शिष्य परिवार सहित आप शत्रुजय-गिरनार प्रभृति गुजरात