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( १२९ ) निर्लोभताका गुण आना सहन नहीं है जिन्तु हम जोरशोरके साथ कह सकते हैं कि महाराज केवलचद्रजी सदाके लिये निर्लोभीथे, उन्होंने अपने जीवनकालम किसी तरहसें धनसचय करनेका प्रयत्न नहीं किया उननोमें एक एक अलौकिक गुण ऐसा रहा हुआथा कि-वे-धारतेतो लाखों नही, पर करोडोंही रूपये मालेते, परतु माना किसेया | उनकी ससारयात्रा जितनी पवित्र-विशुद्ध-और निर्दोप-समाप्त हुइ है वैसी ससारयाना उनके समान वयके आचार्य और यतियों भाग्येही स्यात् विसीसी हुइहो ! अस्तु चातुर्मासके बाद शहर इदोरसे साना होकर शहर बुरहानपुर पधारे वहापर वीरचदजी कोठारीने आपशे विनतीकी, कि, आप एक मास पर्यन्त अवश्य टहरें क्योंकि मेरे नवपद ओलीरा उद्यापनहै । यह उत्सव आप सरीग्ये महानुभावोही कथनानुसार यथाविरि होना में मेरा सौभाग्य समझता हु । आपर्नेभी धर्मकार्य जानकर एक महातक ठहरेरहे। उधापन समाप्तिके बाद, मल्मायु, खामगाम, बालापुर, पातुर, मीडशी होते हुये शिरपुर अन्तरीक्ष पार्थनाथजीकी यात्रा की, और वहासे लौटकर गहर बाइको पधार गये सरत १९२० का चातुर्मास आपका वनइमें पठे समारोहके साथ हुआ गणेगदास कृष्णजीके दुकानके मुनिम आवक केरलचद्रनी मुराणेनें बहोत बडा उत्साह किया, भक्तिपूर्वक रसे, वहासे आप पुना (दक्षण) पधारे वि. स. १९२१ चातुर्मास