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(८८) अन्धे तमसि मज्जाम पशुभिर्ये यजामहे हिंसानामभवेदी नभूतोनभविष्यति १
सुगमः इस्के वाद आपने कहाथाकि अगर वैदिकी हिंसा नफरत करने लायक होती तो उस हिंसाके करने वाले याहोकोंकी लोकमें पूजा कैसे होती ? प्रियमित्र ! यहां परभी
आप शुन्य चित्त मालूम होते हो ! यतः उनलोकी पूजा भूख लोक करते हैं न कि विद्वान इसलिये मूखाँकी पूजासे कोई उत्तमता नहीं पाइ जाती चुके । वेह लोगतो कुत्तेकी भीसेवा कत्तै है इससे क्या कुत्तेका दर्जा वह जायगा ? हरगिज नहीं ! वाद जजा आपने कहाथाकि देवता अतिथि और पितृ आदिको प्रीति संपादिका होनेसे वेदविहित हिंसा अधर्म हेतु नहीं होसक्ती ! यहभी एक प्रलाप मात्र है क्योंकि प्रथम देवताओंका वैक्रीय शरीर है इसलिये येह कवलाहारी नहीं होते किन्तुलो साहारी होते हैं अतः इनका यह आहार नहीं होता है तो बतलाइये ! आपके किस ग्रन्थमें लिखा है कि " मांसभक्षीहि
देवास्यात् " ताके उस्काभी खंडन किया जावें वस जब देवता__ ओंका यह आहारहि नहीं तो वे सन्तुष्ट होकर दृष्टि करते हैं
यह कैसे सावित हुआ ? अगर कथंचित् घुणाक्षर न्यायसे ह. ष्टि होवि गइ नो इससे हम अव्यभिचार नहीं कह सक्ते हैं. अबरहा अतिथिगण, सो इस्को संतुष्ट करनेकेभी घृतदुग्ध मिष्टा