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( ९३ ) यह नहीं कहाजासत्ताकि अपने ज्ञानद्वारा मैने अमुकका पराजय पिया क्योंकि पराजित पुरुप कहसता ह कि यह ज्ञान मेराहि याकि जिसद्वारा आप मेरा पराजय समझते है अथवा ऐसा मानने पर अमुक अल्पर है अमुक विशेषज्ञ यह बुद्धि कभी न पैदा होसकेगी पहिये? अब गैर ऐसा गुद्धिके हम जय पराजय विस्ता कह सक्तं हे 'सर्वथा भेदके इस्तमाल करनेसे मेरा ज्ञान ऐसी प्रतीति कपी नहो सकेगी ! जैसे वा जारके रास्ताको मेग रास्ता नहीं कइसक्तेहे अगर बौद्धोंकी , तरह एकान्त अभेद मानाजावे तोभी ठीक नहीं ! क्योंकि ऐसा मानने परभी मेराज्ञान यह व्यवहार नहीं चरसस्ता । फिरतो मइ में रहेगा मेरा नहीं आसक्ता । क्योंकि जहाँपर भिन्न कल्पना होगी वहापरही यह कहा जायगी कि मेरी फला चीज है दुनियामभी देखाजाता है जिसके सामने खूब पदार्थ पडे होते है वोहि मेरा मेरा पुकारता रहता है मगर त्यागी फकीराके पास्ते मैहि में होता है मेरा कम निकलता है इससेभी सावित होता है कि भेद बुद्धि समझ करहि मम (मेरा) शनका प्रयोग होता है इस लिये सर्व महाराजके स्वीकार किसी तरहका दुपण नहीं है प्रिय मित्रो मत प. तक तो हरएक उनसक्ते है इसमें कोइ मुश्कील नहीं मगर सर्वन अल्पज्ञोंका यही फर्क है कि सर्वज्ञका युक्ति युक्त अपावचन होता है और अल्पशका युक्तिसे राहत और पा य होना