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(५७) साधक्तम अव्यवहित फलोपेत कोही कारण मानना कहै । अत: "स्वपर व्यवसायि ज्ञान प्रमाण" ऐसा जैनाचार्य कृत लक्षणही निर्दोषहै । प्रमाणके बाद इनका दूसरा पदार्थ प्रमेय है । इरके गरह भेद नीचे मुजब मानते हैं । तथाहिसुत्रं-" आत्म' शरीरें द्रियार्थ बुद्धि मनं प्रत्तिदोषपेत्य भाव फलेंदु सोऽपर्वर्ग भेदात् द्वादशविधं "
देखिये ! इन बारह भेदोंको प्रमेयमें दाखिल करना एक इमाकत दाखिल है। क्योंकि प्रमेयमें इन बारह भेदोंका समावेश नहीं हो सकता है, यत. प्रथम शरीर, इद्रिय, बुद्धि, मन, पत्ति, दोप, फल और दुख. इन आठ पदार्योंका आत्मामही समावेश हो सकता है । क्योंकि ससारी आत्मा कथाचित इससे अभिन्न है। इसलिये आत्मा ही अन्तर्भाव करना योग्य है। देखिये, अब जिन आठ पदार्थोंका आत्मामें अन्तर्भाव दिया जाता है मधम वो आत्माही ममेय नहीं बन सकता है। तो चाकी कैसे बन सकेग ? प्रिय सज्जनो ! इस जगतमें प्रथम तीन चीजोंको मानते हैं । एक प्रमेय, दूसरा ममाण और तीसरा प्रमाना । प्रमेय उस्का नाम है, जो प्रत्यक्ष व परोक्ष इन दोनों प्रमाण द्वारा निस्का अनुभव किया जावे । जैसे