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॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : २:
श्रमण संस्कृति का मूल आधार : अहिंसा
भारतीय संस्कृति की धारा में श्रमण संस्कृति का विशिष्ट स्थान है। समय के झंझावातों से इसमें मत-मतान्तर की लहरें तो उत्पन्न हुई लेकिन इसने धर्म के मूल केन्द्र अहिंसा को नहीं छोड़ा। यह अहिंसा ही इसे गौरवपूर्ण स्थान दिलाने में समर्थ रही है। सुदूर अतीत काल से आज तक सभी श्रमण भारत के कोने-कोने में पदयात्रा करके अहिंसा भगवती का सन्देश पहुँचाते रहे हैं। यह मानसिक, वैचारिक, शाब्दिक और शारीरिक अहिंसा का ही प्रभाव है कि श्रमण संस्कृति के अनुयायियों में कभी भी जीवन को विषाक्त करने वाली कटुता और ईर्ष्या-द्वेष न पनप सके । श्रमणों का सतत प्रवाह
भारत में सन्तों-श्रमणों का अनवरत प्रवाह रहा है। आधुनिक पाश्चात्य विद्वानों के शब्दों में प्रागैतिहासिक काल से ही भारतभूमि में श्रमणों का विचरण होता रहा है। उन्होंने अहिंसा भगवती की ज्योति को सदा जलाए रखा है। उनकी चारित्रनिष्ठा और सत्यपूत वाणी तथा असीम दया भावना से प्रभावित होकर बड़े-बड़े हिंसाप्रिय सम्राटों ने भी अहिंसा को स्वीकार किया, उसे हृदय में धारण किया एवं शिकार तथा मांसभक्षण पर प्रतिबन्ध लगवाया। उनके इस कार्य से राजा तथा प्रजा दोनों में सुख-शान्ति का प्रसार हुआ। जैन दिवाकर चौथमलजी महाराज
इसी श्रमण परम्परा में एक विशिष्ट सन्त का अभ्युदय हुआ। उनका नाम है-चौथमलजी महाराज । उनके विशिष्ट सद्गुणों और तपोमय जीवन से प्रभावित होकर समाज ने जैन दिवाकर, प्रसिद्धवक्ता, वाग्मी, महामनीषी, जगद्वल्लभ आदि उपाधियों से उन्हें अलंकृत किया । वास्तव में इन उपाधियों से वे अलंकृत नहीं हुए वरन् ये उपाधियाँ ही धन्य हो गईं।
वे क्रान्तदर्शी, युगपुरुष सन्त थे। उन्होंने अपने समय के समाज की नब्ज को पहचाना और प्रचलित कुरीतियों, कुरूढ़ियों एवं कुपरम्पराओं को नष्ट करने का प्रयत्न किया। इस कार्य में भी उनकी विशिष्टता यह रही कि लोगों ने उनके महान् प्रयत्न के प्रति श्रद्धा ही व्यक्त की, कभी द्वेष नहीं किया। इसीलिए तो लोगों ने उन्हें जगवल्लभ कहकर सम्मान किया, क्योंकि उनके प्रति श्रद्धा रखने वाले-हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, भारतीय, यूरोपीय, अंग्रेज आदि सभी थे। वे जैन श्रमण होते हए भी सभी सम्प्रदायों के श्रद्धाभाजन थे। वास्तविक अन्त्योदय
वैसे तो आधनिक युग में किसी भी विशिष्ट व्यक्ति को युगपुरुष कहने का प्रचलन हो गया है; लेकिन वास्तविक युगपुरुष वह होता है जो अपने युग की सभी प्रवृत्तियों को प्रभावित करे । युग पर अपने विचारों व व्यक्तित्व की छाप डाले । लोग स्वयं ही उसकी बात माने, आदर करें। उसका चरित्र भी ऐसा होना चाहिए जो महलों से झोंपड़ियों तक सर्वत्र प्रेरणास्पद हो। धनी-निर्धन, अपढ़विद्वान, ग्रामवासी, नगरवासी सभी जन जिसके अनुयायी हों। मुनिश्री चौथमलजी महाराज का जीवन ऐसा ही युग प्रभावकारी था।
आजकल अन्त्योदय की चर्चा समाचार पत्रों में खूब हो रही है । इसमें सरकार कुछ गरीबों को धन और जीविका के साधन जुटा देती है और समझती है कि इससे उनका जीवन उन्नत हो जायगा; उनके जीवन में सुख-शान्ति भर जायेगी। लेकिन धन से कोई सुखी नहीं हुआ है। सुख तो सद्गुणों और सुसंस्कारों से मिलता है। वास्तविक अन्त्योदय तो सद्प्रवत्तियों का विकास है। अपने
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