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पूर्व पीठिका
सम्पूर्ण वस्त्राभूषणों का त्याग कर वह संन्यासिनी बन गई थी। संन्यासी बनकर उसने देहदमन की कठोर साधनाएँ कीं । टेरेसा के समय संन्यासियों की दशा अत्यंत पतनोन्मुखी थी। जिन सन्यासी एवं सन्यासिनियों के ऊपर मनुष्य के अंतर में धर्मभाव जागृत करने का कार्य था उनमें से अनेकों में ज्ञान का अभाव था और कुछ हिंसा, द्वेष, विषयासक्ति एवं अधर्म का पोषण कर रहे थे। ऐसी अवस्था देख टेरेसा ने एक नया आश्रम, एक महान उद्देश्य एवं नये आदर्शों को लेकर स्थापित किया। कई विरोधों का सामना करके भी उसने नियमों की कठोरता रखी । आश्रम के नियम थे कि अपनी संपत्ति पर भी अपना अधिकार नहीं रखना, मांसाहार नहीं करना, सस्ते व मोटे कपड़े पहनना, सिर पर बहुत कम बाल रखना, सादा भोजन वह भी काम करके ही खाना आदि ।
धीरे-2 आश्रम का प्रभाव बढ़ा, पुष्कल धन आने लगा, एवं अनेक स्थानों पर उसकी शाखाएँ खुलीं। सन् 1592 को सन्यासिनी टेरेसा ने देह त्याग किया। सन् 1622 को रोम के पोप ने पुण्यवती टेरेसा को साधु दल में सम्मिलित कर उसका सम्मान बढ़ाया। ये रोमन केथोलिक संप्रदाय की महान साध्वी थी, इसी के नाम पर 20वीं सदी में 'मदर टेरेसा' अपना नाम रखा और भारत भूमि पर असहाय, निर्धन व रोगी परिचर्या में अपने जीवन की पूर्णाहुति की। 75
1.8.5 साध्वी केथेरिन ( ई. 1347-80 )
ये यूरोप की 14वीं शताब्दी की एक महान साध्वी थीं। जिन्हें कठोर धर्मसाधना द्वारा समाधि प्राप्त हुई थी, उस स्थिति में ये ईश्वर में योगयुक्त होकर परम आनंद की अनुभूति में लीन रहती थी। ख्रिस्ती धर्म के लोग उसे 'देवी' के रूप में मान्यता देते।
इनका जन्म सन् 1347 में इटालि देश के सायना ग्राम में हुआ इनके पिता का नाम 'जेकोपो' था एवं माता का नाम था 'लापा' उस समय यूरोप में एक प्रकार की संन्यासिनियाँ परिभ्रमण करती थीं जिनके जीवन का लक्ष्य तपस्या एवं लोकसेवा होता था, इन्हें देखकर उसका मन भी आजीवन ब्रह्मचारी रहकर सन्यासिनी बनने का हुआ। अनेक अवरोधों के बावजूद इस संकल्पशील कन्या ने 'सेइन्ट डोमिनिक' संप्रदाय की विधि के अनुसार संन्यासिनी व्रत अंगीकार कर लिया। अब केथेरिन ने अपने अन्तःकरण को स्फटिकवत् स्वच्छ व निर्मल बनाने के लिये ध्यान, धारणा, समाधि एवं उपासना का एक मात्र अवलम्बन लिया। कई-कई दिन उसके उपवास में व्यतीत होते। उसने योग की उच्च अवस्था को प्राप्त कर लिया। उसका उपदेश भी हृदय को परिवर्तन करने वाला होता था। 'कुमारी केथेरिन' ग्रंथ में उस महान साध्वी के उपदेशों का संकलन है। सन् 1390 में केथेरिन की मृत्यु के पश्चात् ई. सन् 1461 में रोम के पोप उसे 'SAINT' (साध्वी) तरीके गिनने की घोषणा लोगों में की। "
1.8.6 साध्वी गेयाँ (ई. 1648-1717)
यह फ्रांस की एक महान साध्वी हुई। इनका जन्म फ्रांस के 'मोटारझी' शहर में सन् 1648 को हुआ । इनका पूर्ण नाम 'जां - मारि- बूबि -ऐ- यार - डि-ला-मोथ था। ख्रिस्ती धर्म के नियमों का दृढ़ता से पालन करने वाली इस साध्वी की महान गाथाएँ आज भी यूरोप में गाई जाती है। इसने अपना सर्वस्व ईश्वर के चरणों में समर्पित किया हुआ था। सन् 1717 में इसका स्वर्गवास हुआ।”
75. वही, पृ. 76-105
76. वही, पृ. 54 से 75
77. वही, पृ. 106-128
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