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जैन श्रमणियों का बहद इतिहास
1.7.3.6 नन्दा : ये महाप्रजापती गौतमी की पुत्री थी। 'ध्यायिकाओं' में नन्दा को बौद्ध-संघ में श्रेष्ठ माना है। 1.7.3.7 सोणा : श्रावस्ती कुल-गेह से संबंधित भिक्षुणी सोणा 'उद्यमशीलाओं में अग्रगण्य' थी। 1.7.3.8 सकुला : श्रावस्ती की ही रहने वाली थी, इन्हें “दिव्य-चाक्षुकों में अग्रगण्य' कहा है। 1.7.3.9 भद्राकुण्डलकेशा : यह राजगृह के राजकीय कोषाध्यक्ष की सुरूप व गुणवती कन्या थी। एकबार तथागत के शिष्य सारिपुत्त से शास्त्रार्थ में पराजित होकर वह भगवान बुद्ध की शरण में प्रवर्जित हो गई एवं अर्हत् अवस्था को प्राप्त हुई। भगवान बुद्ध के उपदेशों को उसने मगध, कोसल, काशी, वज्जी, अंग आदि अनेक देशों में विस्तार करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। बुद्ध ने उसे “प्रखर प्रतिभाशालिनियों में अग्रगण्य" स्वीकार किया। 1.7.3.10 भद्रा कापिलायनी : ये महातीर्थ ब्राह्मण ग्राम के ब्राह्मण बुद्ध के अग्रगण्य शिष्य महात्यागी महाकाश्यप की पत्नी थी। इन्हें बुद्ध ने “पूर्वजन्म की अनुस्मरणकारिकाओं में अग्रगण्या” माना है। 1.7.3.11 भद्राकात्यायनी : ये कपिलवस्तु की राहुल माता देवदह वासी सुप्रबुद्ध शाक्य की पुत्री थीं। 'महा अभिज्ञाधारिकाओं' में इन्हें अग्रगण्य स्थान प्राप्त है। 1.7.3.12 कृशा गौतमी : ये श्रावस्ती के वैश्य कुल की कन्या थी। इन्हें “रूक्ष चीवरधारिकाओं में अग्रगण्या" कहा है। 1.7.3.13 श्रृगालमाता : ये राजगृह के श्रेष्ठि कुल से संबंधित थीं। इनको तथागत बुद्ध द्वारा 'श्रद्धा युक्तों में अग्रगण्या' पद से सम्मानित किया गया है। 1.7.4 जैन एवं बौद्ध श्रमणियों में परस्पर समानता के बिंदु
श्रमण संस्कृति की इन दोनों महान धाराओं में गृहत्यागिनी भिक्षुणियों, श्रमणियों का अस्तित्व कई एक बातों में समानता लिये हुए है। उदाहरण स्वरूप(i) दोनों ही परम्परा में नारियाँ संसार के दुःखों का.सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके श्रमणी-संघ में प्रविष्ट होती हैं, और
दुःखों से मुक्त होना उनका एकमात्र उद्देश्य होता है। (ii) दोनों ही परम्पराओं में योग्य नारी को ही दीक्षा देने का विधान है। शारीरिक या मानसिक दृष्टि से विकृत
एवं लोकनिन्दक नारियाँ संघ में प्रवेश नहीं कर सकती हैं। अंतर केवल इतना ही है, कि जैनधर्म में योग्यता-अयोग्यता की परख दीक्षा देने से पूर्व की जाती है, जबकि बौद्ध-परम्परा में नारी को प्रव्रजित करने के पश्चात तत्संबधी प्रश्न पूछे जाते हैं, प्रश्नों का सही समाधान प्राप्त होने पर ही उसे उपसम्पदा दी जाती
है। ऐसे अनेक प्रश्नों का उल्लेख डॉ. अरूणप्रतापसिंह ने किया है।" (iii) जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में नारी, दीक्षा से पूर्व अपने परिवारीजन की अनुमति प्राप्त करती हैं, बिना
अनुमति प्राप्त किये उसे संघ में दीक्षित नहीं किया जाता है। बौद्ध-साहित्य में 'मण्डपदायिका' नाम की महिला के अन्तर्मन में महाप्रजापति गौतमी के सान्निध्य से वैराग्य प्राप्ति का उल्लेख है, किंतु वह तब तक
दीक्षा नहीं ले पाई जब तक पति ने सहर्ष अनुज्ञा नहीं दी। 67. डॉ. सिंह, जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ, पृ. 21 68. रसिक विहारी मंजुल, बौद्धधर्म की 22 वनितायें- पृ. 25
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