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विषय-प्रवेश : १३
दिगम्बर परम्पराओं में विभाजित होने की कोई सूचना मिलती हो । इन दोनों स्थविरावलियों में भी कल्पसूत्र की स्थविरावली अपेक्षाकृत प्राचीन है, इसमें दो बार परिवर्धन हुआ है । अन्तिम परिवर्धन वीर निर्वाण सम्वत् ९८० अर्थात ईसा की पांचवीं शताब्दी का है। नन्दीसूत्र की स्थविरावली भी इसी काल की है, किन्तु दोनों स्थविगवलियाँ स्थूलभद्र के शिष्यों से अलग हो जाती हैं। इनमें कल्पसत्र की स्थविरावली का सम्बन्ध गणधर वंश से जोड़ा जाता है।' सम्भवतः गणधरवंश संघ व्यवस्थापक आचार्यों को परम्परा (Administrative linege) का सूचक है जब कि वाचक वंश उपाध्यायों या विद्यागुरुओं की परम्परा का सूचक है। वाचक वंश विद्यावंश है । इसमें विद्वान् जैनाचार्यों के नामों का कालक्रम से संकलन है । किन्तु इन स्थविरावलियों में यापनीय या बोटिक संघ की उत्पत्ति का कोई भी संकेत नहीं मिलता है।
कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियाँ अन्तिम रूप से देवधिगणि क्षमाश्रमण तक की परम्परा का अर्थात् वीरनिर्वाण से एक हजार वर्ष तक (ई० पू० पांचवीं शती से ईसा की पांचवीं शती तक) के जैन श्रमण संघ के इतिहास का उल्लेख करती हैं, फिर भी इसमें सम्प्रदायभेद की कहीं चर्चा नहीं है, मात्र गणभेद आदि की चर्चा है।
श्वेताम्बर परम्परा के उपलब्ध आगमिक साहित्य स्थानाङ्ग और आवश्यकनियुक्ति में हमें सात निह्नवों का उल्लेख मिलता है। ये सात निह्नव जामालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्ठमाहिल हैं। इनमें जामालि और तिष्यगप्त महावीर के जीवन काल में और शेष पांच उनके निर्वाण के पश्चात् २१४ से ५८४ वर्ष के बीच हुए हैं ।२ रोहगुप्त से त्रैराशिक मत की उत्पत्ति का उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरा१. पट्टावलीपरागसंग्रह (कल्याण विजयगणि) के प्रारम्भिक अध्याय । २. (अ) समणस्य णं भगवओ महावीरस्स तिथीस सत्त पवयणणिण्हगा
पण्णत्ता, तं जहा-बहुरता, जीवपएसिया, अवत्तिया, सामुच्छेइया, दोकिरिया, तेरासिया अबद्धिया । एएसि णं सत्तण्हं पवयणणिण्हगाणं सत्तं मम्मायरिया हुत्था, तं जहाजमाली, तीसगुत्ते, आसाढे, आसमित्त , गंगे, छलुए, गोट्ठामाहिले ॥ एतेसि णं सत्तण्ह पवयणणिण्हगाणं सत्तउप्पत्तिणगरा हुत्था, तं जहास्थानाङ्ग ___सत्तमं ठाणं १४०-१४२, पृष्ठ संख्या ७५३-७५४;
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