Book Title: Jain Aayurved Ka Itihas
Author(s): Rajendraprakash Bhatnagar
Publisher: Surya Prakashan Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ 2 जैन आगम-साहित्य 'आ समन्तात् गच्छति -आगच्छतीति आगमः'- जो परम्परा से चला आ रहा है, उसे 'आगम' कहते हैं। जैन मत में आगम, श्रुत, सूत्र, ग्रंथ, सिद्धांत, शासन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापना, प्रवचन -ये पर्यायवाची शब्द हैं। ब्राह्मण-परम्परा में वेद और बौद्ध परम्परा में त्रिपिटिक की भांति जैन-परम्परा में आगम-सिद्धांत का महत्व है। जैन-परम्परा में आगम साहित्य सबसे प्राचीन माना जाता है। अंतिम तीर्थंकर बर्द्धमान महावीर के उपदेशों को उनके समकालिक शिष्य गणधरों ने संग्रहित किया । उनके ग्रंथों को श्रुत' कहा जाता है। ये सूत्र रूप में हैं । श्रुत का अर्थ है-सुना हुआ, उपदेश-परम्परा के रूप में चलने वाला ज्ञान 'श्रुत' कहलाता है । ये ही श्रुत आगे चलकर 'आगम' कहलाये। महावीर के उपदेश उनके शिष्य गणधरों' ने सुने, उनसे उनके शिष्य 'प्रति-गणधरों' ने इस प्रकार यह उपदेश-ज्ञान श्रुत-परम्परा से चलता रहा । ये शिष्य-प्रशिष्य 'श्रुत के वली' कहलाये। ऐसा माना जाता है कि समस्त श्रुत-ज्ञान के अंतिम धारक श्रुतके वली भद्रबाहु (ई. पू. चौथी शती) हुए। यह चंद्रगुप्त मौर्य के राज्यकाल में हुए। उस समय बारह वर्ष का दीर्घकालीन अकाल पड़ा। ऐसे कठिन समय में भद्रबाहु अनेक जैन मुनियों के साथ दक्षिण भारत में चले गए। उत्तर भारत में रहने वाले मुनियों का आचरण शिथिल हो गया और वे श्वेत वस्त्र धारण करने लगे। तब से जैन धर्म में दो सम्प्रदाय प्रवृत्त हुए- दिगम्बर और श्वेताम्बर । दिगम्बर मतानुयायी साधु ऋषभदेव और महावीर के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए निर्वस्त्र विचरण करते हैं । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदाय आगमों को मानते हैं। परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यता है कि कालप्रभाव से शनैः शनैः बुद्धि और मेधा की क्षीणता के कारण आगमों का ज्ञान समाप्त हो गया। वी. नि. के 683 वर्ष बाद बारह अंगों का ज्ञान स्वल्प रह गया। उसी स्मृति के आधार पर धरसेनाचार्य के संरक्षण में 'सत्कर्मप्राभृत' (षट्खण्डागम) और आचार्य गुणधर के संरक्षण में 'कसायपाहुड' नामक आगम सूत्रग्रंथों की रचना की गई। इन दोनों की भाषा शौरसेनी है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार आगमों का ज्ञान प्रचलित रहा, परन्तु उनमें काल-प्रभाव से उत्पन्न हुए दोषों के निराकरण और उनके पाठ-संरक्षण के लिए समयसमय पर 'वाचनाएं' आयोजित की गईं । प्रथम वाचना महावीर निर्वाण (ई. पू. 527 के लगभग) के 160 वर्ष बाद (ई. पू. 367) चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में हुई । उस समय अकाल के कारण भद्रबाहु अनेक साधुओं के साथ दक्षिण की ओर चले गये थे। शेष साधु स्थूलभद्र के नेतृत्व में पाटलिपुत्र में एकत्रित हुए। इस सम्मेलन में श्रुतज्ञान को 11 अगों में संकलित किया गया, बारहवां दृष्टिवाद का किसी को स्मरण नहीं था, [ 6 ]

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 196