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जम्बू स्वामी अंतिम 'केवली' थे। उनके बाद निर्वाण और केवलज्ञान बन्द हो गया। अत: जम्बूस्वामी के बाद आचार्य परम्परा के व्यक्ति 'श्रुतधर' कहलाये ।
बौद्ध संघ की भांति जैन संघ में भी अनेक मत प्रचलित हुए। इनमें सात 'निह्नव' (मत) मुख्य हैं। इनकी उत्पत्ति महावीर के निर्वाण के बाद से महावीर निर्वाण के 584 वर्ष बाद तक हुई ।
ई. सन् के अन्तिम चरण में जैनधर्म में श्वेताम्बर और दिगम्बर (अचेलिक= वस्त्रहीन) ऐसे दो भेद स्पष्ट हो गए।
महावीर द्वाग उपदिष्ट निर्ग्रन्थ जैनधर्म बिहार से समस्त उत्तर भारत में फैला । फिर राजस्थान, गुजरात और सौराष्ट्र ( काठियावाड़) में तथा उडिसा में होकर दक्षिण भारत में पहुंचा। बौद्ध धर्म की भांति यह विदेशों में नहीं फैला ।
संक्षेप में, जैनधर्म की परम्परा इस प्रकार रही - जैनधर्म के मूल प्रवर्तक 'तीर्थङ्कर' माने जाते हैं । कालक्रम से ये चौबीस हुए ।
इनमें प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभनाथ और अन्तिम महावीर हुए। महावीर का निर्वाण संवत् से 470 वर्ष पूर्व, शक संवत् से 605 वर्ष पांच माह पूर्व तथा ईसवी सन् से 527 वर्ष पूर्व हुआ था । वर्तमान प्रचलित जैन-धर्म की नींव महावीर के उपदेशों से पड़ी । उन्होंने जैन संघ को चार भागों में बाँटा-मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका। पहले दोनों वर्ग घरबार छोड़कर परिव्राजक व्रत धारण करने वाले और शेष दोनों ग्रहस्थों के वर्ग हैं । इसे 'चतुविध-संघ' कहते हैं । परिव्राजकों और गृहस्थों के लिए अलग-अलग आचार-नियम स्थापित किये गये । ये नियम और व्यवस्थाएं आजपर्यन्त जैन-समाज को प्रतिष्ठित बनाये हुए है ।
महावीर के बाद गणधर और प्रति-गणधर हुए, उनके बाद श्रुतकेवली और उनके शिष्य-प्रशिष्य आचार्य हुए । यही जैन परम्परा है ।
1 श्वेताम्बर मतानुसार महावीर-निरिण के 609 वर्ष बाद शिवभूति द्वारा रथवीरपुर नगर में बोटिक अर्थात् दिगम्बर संघ की स्थापना पाठवें निह्नव के रूप में मानी जाती है । दिगम्बर प्राचार्य देवसेन ने विक्रम के 136 वर्ष बाद वलभी में श्वेतांबर संघ की स्थापना बतायी है । इन दोनों ही मतों से यह काल ईसा की प्रथम शती का अंतिम चरण प्रमाणित होता है ।
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