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दूसरा पुत्र द्रविड था, जिससे 'द्राविड़' लोग हुए । संभवतः उसने किसी विद्याधर कन्या से विवाह करके वह विद्याधरों में ही बस गया था और उनका नेता बन गया था, जिससे वे लोग कालांतर में 'द्राविड' कहलाये ।।
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन का अनुमान है कि "ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन सिन्धु सभ्यता के पुरस्कर्ता प्राचीन विद्याधर जाति के लोग थे जिन्हें द्राविड़ों का पूर्वज कहा जा सकता है। किन्तु साथ ही उनके प्रेरक एवं धार्मिक मार्गदर्शक मध्यदेश के वे मानववंशी मूल आर्य थे जो तीर्थंकरों के आत्मधर्म और श्रमण संस्कृति के उपासक थे। तीसरे तीर्थंकर सम्भवनाथ से लेकर नवें तीर्थंकर पुष्पदन्त तक का काल सिन्धु सभ्यता के विकास का काल है। ये लोग वेदों में अवैदिक (वेदविरोधी). अनार्य, ब्रात्य दस्यु और असुर कहे गये हैं। विद्वानों ने मोहनजोदड़ो की सभ्यता का काल ई. पू. 6000 से 2500 वर्ष तक तथा हडप्पा की सभ्यता का काल ई. पू. 3000 से 2000 वर्ष तक माना है। सिन्धु सभ्यता का फैलाव 'गंगा, चंबल और नर्बदा के कांठों में पश्चिमी उत्तरप्रदेश, पश्चिमी राजस्थान तथा गुजरात काठियावाड़' आदि क्षेत्रों में हो चुका था । यह समूची सभ्यता-संस्कृति आर्यों से भिन्न 'द्राविडीय' मानी जाती है । जैन धर्म के प्रारंभिक तीर्थकर इसी संस्कृति से संबंधित थे, ऐसा विद्वानों का मत है ।
पं. बेचरदास दोशी ने श्री जैन धर्म को तथाकथित सिन्धु-संस्कृति से संबद्ध किया जाना उचित बताया है ।
कालान्तर में साथ-साथ आवासन और परस्पर आदान-प्रदान व रोटी-बेटी के व्यवहार से आर्य-सभ्यता और द्राविड़-सभ्यता का सम्मिश्रण होता गया। महाभारत काल तक यह मेल पूर्ण हो चुका था। संपूर्ण भारतीय समाज में आर्य और द्राविड़ का भेद मिटकर, व्यवसाय या कर्म के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण बन गये थे। वर्ण कार्य पर आधारित थे यानि वर्ण परिवर्तन करना सरल था, जटिल नहीं।
महाभारत का काल ई. पू. 1450 के लगभग ठहरता है। उस समय वत्स, कुरु, पांचाल, शूरसेन, कोसल, काशी, पूर्व विदेह, मगध, कलिंग, अवन्ति, महिष्मती और अश्मक-ये वैदिक क्षत्रियों के 12 राज्य थे। ई. पू. 1400 से 600 के बीच का काल अस्पष्ट है। इसके बाद प्रायः निश्चित ऐतिहासिक तिथिक्रम मिल जाता है । बौद्ध काल के 16 'महाजनपदों' का उल्लेख 'अंगुत्तर निकाय' में (आठ युगलों के रूप में)
1 डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन- भारतीय इतिहास : एक दृष्टि (भारतीय ज्ञानपीठ,
वाराणसी, द्वि. सं. 1966) पृ. 24 । - वही, पृ. 28 3 जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग-1, पृ. 19-20 ।
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