Book Title: Jain Aayurved Ka Itihas
Author(s): Rajendraprakash Bhatnagar
Publisher: Surya Prakashan Samsthan

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Page 12
________________ 12 चक्रवर्ती - 1 भरत, 2 सगर, 3 मबत्रा, 4 सनत्कुनार, 5 शांति, 7 अरह, 8 सुभौम, 9 पद्म, 10 हरिषेण, 11 जयसेव, 12 ब्रह्मदत्त | 6 कुन्यु, 9 बलभद्र – 1 अचल, 2 विजय, 3 भद्र, 4 सुप्रभ, 5 सुदर्शन, 6 आनन्द, 7 नन्दन, 8 पद्म, 9 राम । 9 वासुदेव - 1 त्रिपृष्ठ, 2 द्विपृष्ठ, 3 स्वयम्भू, 4 पुरुषोत्तम, 5 पुरुषसिंह, 6 पुरुष पुण्डरीक, 7 दत्त, 8 नारायण, 9 कृष्ण । 9 प्रतिवासुदेव - 1 अश्वग्रीव, 2 तारक, 3 मेरक, 4 मधु, 7 प्रह्लाद, 8 रावण, 9 जरासंघ | काल-विभाग 5 निशुम्भ, 6 बलि, जैन मान्यता के अनुसार भारत में संपूर्ण काल चक्र को दो भागों में बांटा गया है— इन्हें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नामक 'कल्प' कहते हैं । उत्सर्पिणी सभी भावों का उन्नति-काल है तथा अवसर्पिणी ह्रास काल है । यह कालचक्र अनादि है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। प्रारंभ में उत्सर्पिणी काल था । अब अवसर्पिणी काल चल रहा है, दोनों कालों में चौबीस तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं । प्रत्येक कल्प के छः काल-विभाग हैं - जिनके नाम - सुषमा- सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमा- सुषमा, दुषमा और दुषमा - दुषमा । वर्तमान अवसर्पिणी काल में अब तक चौबीस तीर्थङ्कर हो चुके हैं । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव या आदिनाथ हुए तथा अन्तिम तीर्थङ्कर वर्धमान महावीर हुए । अवसर्पिणी कल्प के तृतीय सुषमा - दुषमा काल में अयोध्या के राजा नाभिकुलकर की महाराणी मरुदेवी से आदि ( प्रथम ) तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म हुआ था । उन्होंने सुव्यवस्थित कर्मप्रधान सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात किया । उन्होंने 72 कलाओं ओर स्त्रियों की 64 कलाओं का उपदेश दिया; अग्नि जलाना, अन्न पकाना, बर्तन बनाने, वस्त्र बुनने और बाल बनाने की विधियां तथा सुसंस्कृत विवाह संस्था का प्रचलन किया । उन्होंने असि, मसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या रूप 'लौकिक षट्कर्मो' तथा देवपूजा, गुरुभक्ति स्वाध्याय, संयम, तप और दान रूप 'धार्मिक पट्कर्मों' का उपदेश दिया । कर्म के आश्रय-भेद से क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के रूप में श्रम का सामाजिक विभाजन स्थापित किया । सुव्यवस्थित राज्य एवं समाज की व्यवस्था द्वारा उन्होंने सभ्य नागरिक युग का प्रारम्भ किया । उनके पूर्व सर्वत्र असभ्ययुग प्रचलित था । उन्होंने अहिंसामय सरल आत्मधर्म और सदाचारप्रधान योगधर्म का उपदेश किया । कैलाश (अष्टापद) पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया । इनका कार्य क्षेत्र अयोध्या अन्त से हस्तिनापुर तक रहा । इनके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती ने संपूर्ण भारत में एकछत्र शासन किया, उसी के नाम से यह देश भारतवर्ष कहलाया और उससे 'भरत वंश' चला । ऋषभदेव का [ 2 1

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