Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ |शुभ कामना सन्देश -डॉ. श्रीमती कोकिला भारतीय खाचरौद भारतीय संस्कृति संतों की संस्कृति है, ऋषि-मुनियों और मनीषियों की संस्कृति है, प्रज्ञ पुरुषों के प्रज्ञाविस्तार की संस्कृति है, सत्यान्वेषण की ओर प्रशस्त मुमुक्षुओं की संस्कृति है, जिन्होंने अपनी प्रखरता से इसे प्रखर बनाया, विज्ञापित किया तथा निर्विकृत कर जीव मात्र के लिए बोधगम्य, आचरणगम्य एवं अन्त में निर्वाण गम्य भी बनाया। जैन संस्कृति तीर्थंकर परमात्माओं की संस्कृति है। जो कुछ तीर्थंकर देशना देते हैं, उसे शब्दों में पिरोकर गणधर सर्व सुलभ सदैव सुलभ या यूं कहे शाश्वत सुलभ बना देते हैं। चरम तीर्थंकर प्रभु महावीर स्वामी के पश्चात् सुधर्मास्वामी की पाट परम्परा चली, जिसमें वर्तमान तक अनेक उद्भट विद्वानों एवं आत्मतत्त्व वेत्ता आचार्य भगवन्त हुए जिन्होंने जैन संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने का भरसक प्रयत्न किया। ऐसे ही महायोगी महामनीषी, महादर्शनवेत्ता एवं महान् साहित्यकार आचार्य हरिभद्र सूरि हुए जिन्होंने आध्यात्म के तल तक जाकर योग और दर्शन के मार्ग को अपने मनन और चिन्तन के द्वारा प्रकाशितकर समन्वयवादी सिद्धान्तों की प्ररूपणा की। “ऐसे लेखनी के धनी आचार्य हरिभद्रसूरि पर ऐसा शोध प्रबन्ध प्रस्तुत करना - जो उनके विचारों के साथ, उनके साहित्य के साथ, उनके अध्यात्म के साथ न्याय कर सके - एक दुष्कर तम कार्य था / जहाँ चाह होती है वहाँराह भी होती है। परम पूज्य राष्ट्रसंत श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी म.सा. की समुदायवर्तिनी एवं सरलमूर्ति साध्वीजी श्री कोमललताश्रीजी की सुशिष्या - प्रखर प्रज्ञा प्रवरा साध्वीजी श्री अनेकान्तलताश्रीजी ने “आचार्य हरिभद्रसूरि के दार्शनिक चिन्तन का वैशिष्ट्य'- विषय पर अपना शोध प्रबन्ध प्रस्तुत कर जहां अनुमोदनीय एवं अभिनन्दनीय कार्य किया है, वहीं शोध अध्येताओं के लिए गागर में सागर की तरह अभूतपूर्व पठनीय सामग्री प्रस्तुत की है। जैन दर्शन - उसका इतिहास, नव तत्त्व, षड्द्रव्य, निर्वाण, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, कर्मवाद, आचार, पंचज्ञान, योग, तप, व्रत, संयम, चारित्र, जन्म और पुनर्जन्म एवं अन्य दर्शनों की विस्तृत अवधारणाओं का वर्णन कर विशालकाय शोध प्रबन्ध जो समग्रता संपन्न है - प्रस्तुत किया है। संयम जीवन और तप करते हुए भी आपश्रीने जो सफलता प्राप्त की है वह प्रशंसनीय है, अनुमोदनीय है, अनुकरणीय है। इसी तरह कर्मठतापूर्वक अपनी पावन प्रज्ञा से गुरुगच्छ की प्रभावना करें तथा आपका यह चिन्तन जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी सिद्ध हो - इसी मंगल कामना के साथ..... 13 VIIIII