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धर्माभ्युदये महाकाव्य साथै वस्तुपालना वंशसाथे संबन्ध धरावता इतिहास प्रमाणभूत वर्णन करनार उत्तम प्रकारनो ऐतिहासिक प्रबन्ध पण छे. तदुपरान्त, वस्तुपालनी स्तुति करनारा केटलांक मुक्तक पद्योना संग्रहखरूपनी एक अन्य स्तुति पण उपलब्ध थाय छे. ए बने कृतियो प्रस्तुत पुस्तकना परिशिष्टरूपे प्रकट थनार बीजा भागमा मुद्रित करवामां आवी छे.
६८. संपादनना उपयोगमा लीघेली प्रतियो ,
प्रस्तुत ग्रन्थना संपादनकार्यमां, संपादक मुनिवर्योए ४ हस्तलिखित जूनी प्रतियोनो उपयोग कयों छे. तेमांनी ३ प्रतियो ताडपत्रीय हती अने एक कागळनी हती. ताडपत्रीय प्रतियोमा सौथी विशिष्ट प्रकारनी जे प्रति छे ते खंभातना शान्तिनाथमन्दिरना ज्ञानभंडारनी छे. ए प्रति साक्षात् वस्तुपालनीज लखावेली छे. वि. सं. १२९० मा वस्तुपाल ज्यारे संमतीर्थ एटले खंभावना प्रान्तपति तरीकेनो अधिकार भोगवतो हतो त्यारे लखवामां आवी हती. आ प्रतिना अन्तिम पृष्ठनी प्रतिकृतिनु मुद्रित-चित्र आ साथे मूकवामां आव्यु छे जेथी एना आकार-प्रकारनो साक्षात् परिचय वाचकोने मळी शकशे. बीजी ताडपत्रीय प्रतियोमाथी एक पाटणना भंडारनी हती अने एक वडोदरानी भंडारनी हती. चोथी प्रति जे कागळ उपर लखेली छे ते पण पाटणना भंडारनी छे. ए प्रति वि. सं. १४४६ मां, लक्ष्मीचन्द्र नामना एक विद्वान्नी लखेली छे जेणे प्रतिना अन्तमा, पोतानो परिचय आपतुं आ प्रमाणेनुं एक संस्कृत पद्य आप्यु छे
श्रीमत्प्राग्वाटवंशाम्बुधिशशिसहशो हादिगस्याङ्गजन्मा
पुत्रो मातुस्तिलख्वाः प्रविदितचरणो रुद्रपल्लीयगच्छे । श्रीमहेवेन्द्र शिष्यः रस-सुख-जल-भवत्सरे काव्यमेनं
लक्षीचन्द्रो लिलेखाखिलगुणनिधयः सूरयः शोधयन्तु । आ पद्यनो भावार्थ ए छ के-प्राग्वाट वंशरूपी समुद्रमाटे चन्द्रमा जेवो, हादिग पिताने तिलखू मातानो पुत्र, तथा रुद्रपल्लीय गच्छना देवेन्द्र सूरिनो शिष्य,- एवा लक्ष्मीचन्द्रे संवत् १४४६ मां आ काव्यनु आलेखन कयु छे (अर्थात् आ प्रतिलिपि करी छे), आ आलेखनमा जे काई अशुद्धियो थवा पामी होय, ते विद्वानोए सुधारी लेवानी विनंति छे. आज लक्ष्मीचन्द्र विद्वाने, अब्दुल रहमान नामना म्लेच्छजातीय (मुसलमान) कविना अपभ्रंश भाषामां रचेला 'सन्देशरासक' नामना सुन्दर सन्देशात्मक काव्य उपर संस्कृतमा संक्षिप्त वृत्ति बनावी छे तेना अन्ते पण तेमणे पोतार्नु परिचायक आ पद्य मूकेलं छे. (ए वृत्तिनी रचना सं० १४६५ मां थएली छे.) लक्ष्मीचन्द्रना हस्ताक्षरोमां लखाएली ए प्रतिना अन्तिम पृष्ठतुं प्रतिचित्र पण आसाथे मूकवामां आव्युं छे. . अन्ते, प्रस्तुत ग्रन्थना मूळ संपादक स्वर्गवासी पूज्यपाद श्री चतुरविजयजी महाराजना वन्दनीय चरणोमां म्हारी भक्तिभरेली 'सरणांजलि' समर्पित करीने, तेमनो म्हारा प्रत्ये जे स्नेहाई वात्सल्यभाव हतो अने म्हने आ प्रकारनी साहित्योपासना करवामां तेमना तरफथी जे प्रशस्त प्रेरणा अने प्रोत्साहन मळ्या हतां तेनो अनन्य उपकारभाव स्मरण करतो, हुं तेमना ज्ञानज्योतिर्मय अमर आत्माने पंचांग प्रणिपातपूर्वक वन्दन करं छु.
. . . तेम ज, पोताना परमगुरुवरना अपूर्ण रहेला ए संपादन कार्यने पूर्ण करीने तथा तेनी पूर्तिरूपे वीजा भागनं स्वतंत्र संपादन करी आपीने, आ ग्रन्थमाला प्रत्ये पोतानो जे विशिष्ट ममत्वभाव बतान्यो छे अने ते द्वारा म्हने जे सौहार्दपूर्ण सहकार आपी उपकृत कयों छे, ते माटे सौजन्यमूर्ति परमस्नेहास्पद मुनिवर श्री पुण्यविजयजीनो पण हुं हार्दिक आभार मानु छ..
वसन्तपञ्चमी, वि. सं. २००५ :: : . . . (दिनांक ३-२-१९४९) ' भारतीय विद्या भवन, बंबई); .... ; . - -जि न विजय