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दिवंगत पूज्यपाद मुनिवर्य श्री चतुरविजयजी एक श्रद्धाभिव्यंजक-स्मरण सुमनांजलि
[समर्पक-जिन विजय]
प्राचीन जैन वाङ्मयना संशोधन-संपादन कार्य तरफ म्हने जे काई रुचि उत्पन्न थई
अने ए कार्यप्रवृत्तिमा पळोटाई जवानी जे काई वृत्ति उद्भवी तेमा मुख्य निमित्त, प्रस्तुत धर्माभ्युदय जेवा अनेकानेक ग्रन्थोना संपादक अने संशोधक स्वर्गवासी गुरुकल्प मुनिवर्य श्री चतुरविजयजी महाराजनी अहर्निश ज्ञानोपासना छे.
तेमना चरणपीठ समीपे ज म्हारा साहित्यिक जीवनस्रोतनो प्रादुर्भाव थयो हतो अने तेमनी सहानुभूति भरी दृष्टि नीचे ज केटला य अन्तर सुधी ए स्रोत वृद्धिंगत थतो आगळ वधतो रह्यो हतो. जिन विजय नामथी ओळखांता म्हारा व्यक्तित्वनो आरंभ तेमना ज अन्तेवासरूपी आश्रय नीचे थाय छे अने तेनो केटलोक विकास पण तेमनी ज परिपोषणात्मक सहायताथी थाय छे. तेमना अन्तेवासमा रहेवानो जो म्हने सुयोग न मळ्यों होत तो 'जिनविजय तरीकेनी म्हारी हयाती अने ख्याति कदाच आटली लांबी नये रही होत. जातकयोगना आधारे ज्योतिषिये सूचवेला अने जन्म आफ्नार मातापिताए पोतानी पसंदगीपूर्वक अर्पित करेला मूल नामर्नु, अने ते साथे तदवस्थ जीवननु य परिवर्तन करी, अकस्मात् रूपे मळी गएला एक अपरिचित साधुजने आपी दीधेल 'जिनविजय' जैवं नूतन नाम धारण करनार तथा ते साथे पूर्वजीवन करतां तद्दन भिन्न प्रकारना जीवन पंथे वळनार, अने आ रीते एक जन्ममा ज जाणे अनेक जन्मनी अनुभूति मेळवनार, आ पंक्तियोना लेखकना क्षणिक तेम ज क्षुल्लक व्यक्तित्वना अल्प इतिवृत्तमां, स्वर्गवासी शान्तमूर्ति साधुपुंगव पूज्यपाद प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी महाराज तथा तेमना सुयोग्य, सुशील, सुधारकचित्त अने सुमार्गप्रवृत्त दिवंगत मुनिवर श्रीचतुरविजयजीनां पुण्यस्मरणोनु, अत्यन्त विशिष्ट स्थान रहेळु होवाथी, ते स्मरणोने अल्प-स्वल्प खरूपमा शब्दबद्ध करवानी दृष्टिये अने ते द्वारा ते सद्गतिप्राप्त उपकारी आत्माओने पोतानी भक्ति भरेली श्रद्धांजलि अर्पित करीने स्वीय आत्माने सन्तुष्ट बनाववानी इच्छाए, अहिं आ 'स्मरण सुमनांजलि' स्वरूप एक संक्षिप्त प्रकरण आलेखित करवानो प्रयास करवामां आव्यो छे.
संवत् १९६५ नी सालमां, जीवनना कोई २०-२१ मा वर्षे, जैन स्थानकवासी संप्रदायानुसारी साधु जीवनना, साधारण रीते बहु कठोर गणाता आचारोनु, ७ वर्ष सुधी यथायोग्य पालन करता करतां, अंतरनी उग्र थती जती ज्ञानलिप्सानी तृप्तिना अभावना उद्वेगादिधी प्रेराई, ते मुखपट्टीप्रधान वेषनो लाग कर्यो अने संस्कृत-प्राकृतादि भाषानुं अने जैन आगमोनुं विशेष ज्ञान मेळववानी उत्कट उत्कंठाथी तेम ज विविध प्रकारना अन्यान्य शास्त्रोनोपण अभ्यास करवानी तीन आकांक्षाथी, श्वेतांबर संवेगपक्षीय संप्रदायना पीतवस्त्रप्रधान वेषनो स्वीकार कर्यो. जेमणे म्हने ए नवीन वेप आपीने तेम ज 'जिनविजय'ना नूतन नामनी मुद्रा लगाडीने पोतानो शिष्य बनाव्यो, ते मुनिवर पं० श्रीसुन्दरविजयजी गणी एक सरलखभावी अने सच्चरित्र वयोवृद्ध साधु पुरुष हता. शिष्यतरीकेनो म्हारा उपरनो .