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लगाकर, उन्हें ही जलाकर अपना कर्तव्य पूरा करने का संतोष मानते है। आखिर तो यह देह हमें छोड़ने वाला है, फिर उसके लिए जीवनभर पाप करना कहाँ तक उचित है? धर्मकथाओं से हमें यही सीख मिलती है।
यह काया पुद्गल है, यह पल पल गल रही है, पूरण-गलन इसका स्वभाव है। फूलो के इत्र से या काया कल्पों से भी इसे सदा सुगंधित नहीं रख सकते। ऐसी काया से इतना प्यार? आत्मा की याद भी नहीं?
इसीलिए भगवान ने कहा है "तूं अपनी आत्मा को समझ, तभी विश्व और परमात्मा को समझ सकेगा। इस जगत में कुछ भी निंदा या प्रशंसा के योग्य नहीं है, वस्तु मात्र परिवर्तनशील है। प्राज्ञ मनुष्य का काम तो केवल देखना और जानना है। "कर्तृत्वं नान्यमावानाम् साक्षित्वं अवशिष्यते।" यानि की आत्मा वस्तु का कर्ता नहीं पर दृष्टा, साक्षीरूप है, यदि यह बात समझ में आ जाए, तो हम धर्मकथा के श्रवण, चिंतन से धर्म पंथ पर समझदारी पूर्वक अग्रसर हो सकते है।
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