Book Title: Dharma Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Divine Knowledge Society

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Page 202
________________ ५० ध्येय यात्रा पच्चीस सौ वर्ष पहले श्रमण भगवान महावीर ने यह सब हमें क्यों कहा? इसका विचार कीजिए। उनके अतःकरण में तो एक की भावना थी, किस तरह से इस संसार का कल्याण हों, ऐसी निर्मल भावना द्वारा वाणी का स्रोत बहाया, सच्चे स्नेही तो ऐसे सत्पुरुष ही हैं, जो हमें संसार रूपी कीचड से मुक्त करवाना चाहते हैं। बालक छोटा हों और सच्चे सर्प को खिलौना समझकर खेलने जाए, तो माँ उसका हाथ पकड़कर उसे खींच लेती है। उस समय यदि बच्चा माँ का हाथ काट ले, तब भी माँ उसे छोडेगी नहीं, क्यों कि माँ समझती है कि इसी में बच्चे का हित है। इसी तरह हमारे गुरू भी माँ समान है, विषयरूपी सर्प के साथ हम खेलने को ललचाते हैं, तब गुरु ही हमें रोकते है। तब हमें शायद यह रूचिकर नहीं लगें, परंतु फिर भी वे हमारे हितेच्छु हैं। श्रोताओं के कई प्रकार हैं, कुछ होते हैं कान्ता समित, उन्हें छोटी छोटी बातों द्वारा स्त्री तथा बालक की भांति समझाया जाता है। दूसरे होते हैं मित्र समित, उनके साथ तर्क, चर्चा आदि होती है। तीसरा है प्रभु समित, ऐसा व्यक्ति प्रथम दोनो दृष्टि से श्रेष्ठ होता है, अत: उनके दिल में प्रभु आज्ञा के लिए कोई शंका पैदा ही नहीं होती, वह तो जीवन का अनुभव ही करता है। यह ज्ञान केवल चर्चा का विषय नहीं, यह तो आचरण का विषय १७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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