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मुंह में लेती है, क्रिया तो एक ही है, पर दोनों के पीछे हेतु भिन्न है, एक में रक्षण भाव है, दूसरे में भक्षण भाव है।
संसार में व्यक्ति जब लक्ष्य निश्चित करके जीते हैं, ताकि अलिप्त रहकर जी सकें, हमें भी ऐसी ही तैयारी सदा रखनी है कि अवसर आने पर हम हमारा सर्वस्व आसानी से त्याग सके।
शक्कर एवं शहद दोनों में मधुरता है, मगर शक्कर पर बैठी हुई मक्खी मीठे का स्वाद लेकर, जब जी चाहें उड़ सकती है। परंतु शहद पर बैठी हुई मक्खी मीठे का अनुभव, स्वाद तो लेती है, मगर उसके पंख अंदर ही चिपक जाते हैं, उड नहीं पाती, वहीं चिपक जाती है। आज इन्सान का जीवन शहद पर बैठने वाली मक्खी की भांति हो रहा है, वस्तुमात्र में आसक्ति के कारण वह मक्खी की तरह संसारिकता के शहद में लिप्त होता जा रहा है। इसके लिए हमें अपनी अरूपी आत्मा के स्वरूप को समझने की आवश्यकता है। अंग्रेजी में एक कहावत है, “No man can hit the mark, if his eye moves from it." यदि आँखे निशाने पर एकाग्र न की जाएं. तो निशाना चूक जाता है। हमने जो लक्ष्य तय किया है, हमें उस पर, उस निशाने पर निगाहें एकाग्र रखनी हैं। ऐसा करने से दूसरी प्रवृत्तियां करते हुए भी क्रोध, मान, माया, लोभ को कम करते हुए हम अपनी मंजिल को पा सकेंगे।
साधु भी अपना लक्ष्य चूकें तो नीचे उतर सकता है, कई बार साधुओं के सामने संसारी लोगों से अधिक प्रलोभन आते हैं। मुंबई में लोगों को एक कमरा भी नहीं मिलता जब कि साधुओं को तीन मंजिल का उपाश्रय मिल जाता है। हम लोग सादा भोजन करते हैं, साधु को मिष्टान मिलते हैं, हम कभी फटे हुए कपड़े पहनते हैं, मगर साधु को ऐसा करने की जरूरत नहीं। ऐसी परिस्थिति में यदि साधु भी लक्ष्य चूके तो कपड़े, वस्तुएँ, मकान आदि के संग्रह में जुट सकता है।
___ इसीलिए साधु व संसारी दोनों के लिए लक्ष्य बिंदु अत्यावश्यक है। एक बार यह ध्येय निश्चित हो जाए, फिर तो हमें जिन्दगी छोटी लगेगी, कुछ करने के लिए, और हम एक क्षण के लिए भी प्रमादी नहीं बनेंगे।
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