________________
१८२ हम मृत्यु का सामना करने के लिए तैयार क्यों न रहे?
शिकारी को देखकर खरगोश जोर से दौडता है, परंतु जब थक जाता है, तब आँखे बंद करके रास्ते में बेठ जाता है। वह मानता है कि मेरी आँखे बंद हैं, में कुछ नहीं देख सकता तो शिकारी भी कुछ नहीं देख सकता, परंतु यह उसकी मूर्खता है। हमारे पीछे भी ऐसा काल-शिकारी आ रहा है, और फिर भी हम मृत्यु का विचार मात्र करना भी नहीं चाहते, क्या यह हमारे जीवन की बिडम्बना नहीं? बहुत चले गये, बहुतों को श्मशान घाट तक पहुंचा आए, फिर भी हमें अपने नश्वर जीवन का ज्ञान नहीं होता, आश्चर्य है!
उपाध्याय विनयविजयजी महाराज फरमाते हैं, कि जिनके साथ हम बचपन में खेले, जिनको बुजुर्ग मानकर शीश नमाते थे, वो सब चले गये। जिनके साथ प्रीत की, जिन के साथ प्यार भरी बातें करते थे, समझते थे कि यह प्रेमगोष्टि तो अनंत युगों तक चलेगी, वे सब स्वजन भी भस्मीभूत हो गये राख बनकर खाक में मिल गये। यह सब देखकर भी हमें अपनी आत्मा का ख्याल नहीं आता, कितने अफसोस की बात है? - इतनी जाग्रति सदैव रहनी चाहिए कि एक दिन जाना है। गेंद में से हवा निकलते ही गेंद संकुचित हो जाती है, वैसे ही देह से आत्मा निकलने पर शरीर निश्चेष्ट होकर पड़ा रहता है। चौबीस घंटो में दुर्गंध, देने लगता है, पूरी जिन्दगी जिसकी अत्यंत प्रेमपूर्वक संभाल ली,वह पल भर में जलकर राख हो जाता है। सभी अनिश्चितताओं में केवल मृत्यु ही निश्चित है, अत: लक्ष्यबिंदु आवश्यक है।
पर्वत में से निकलती नदी का लक्ष्य निश्चित है, राह में आने वाले जंगल, झाडीयों में से रास्ता बनाती हुई नदी समुद्र की और बहती चली जाती है। वैसे ही इन्सान भी शुरूआत से ही लक्ष्यबिंदु निश्चित कर ले, तो राह में आने वाली कठिनाईयों से न डरते हुए, बिना रूके, जीवन में प्रगति साध सकता है।
बिल्ली एक बार अपने बच्चे को मुंह में लेती है, दूसरी बार चूहे को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org