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धर्म और नीति का नाश करके व्यवसाय करना, उचित नहीं है, यह बात इन्सान जैसे भूल ही गया है।
व्यक्ति आज पैसे के सामने भगवान को भी छोटा गिनता है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में आज व्यक्ति अर्थ और काम के पीछे पडा है, इसी में रचा पचा रहता है। जिन्दगी का अमूल्य समय इसमें गवांकर भी, उसे भोगने का भी समय नहीं मिल पाता, क्यों कि जीवन जीने का उसके पास, कोई ध्येय ही नहीं ।
प्रति वर्ष जीवन का एक वर्ष कम हो रहा है, हम मृत्यु के निकट जा रहे हैं, फिर भी इन्सान वर्षगांठ मनाता है, आनंद का दिन मानकर । सच तो यह है कि, अनमोल जिन्दगी के वर्ष व्यर्थ ही खर्च हो जाए, उसका अफसोस होना चाहिए।
आयुष्य की डोरी को कोई नहीं जोड़ सकता, दीपक में तेल खत्म होने पर दिया बुझ जाता है, वैसे ही आयुष्य पूर्ण होने पर, जीवन दीप निर्वाण को प्राप्त होता है, इन्सान चला जाता है 1
दिन प्रतिदिन आयुष्य तो घटता ही जाता है, परंतु सत्कार्यों को करते करते जीवन समापन हों तो सार्थक है। आयुष्य को कौन रोक सकता है भला ? मरूस्थल में पानी भस्म हो जाता है, वही पानी ऊपजाऊ जमीन में हरियाली और अनाज पैदा करता है । हम जब भी मरें तब लोग ऐसा बोलें कि इसने अपना जीवन सफल बनाया, सत्कार्यों द्वारा । लब्धलक्ष यानि ध्येय की तरफ दृष्टि, यह दृढ निश्चय होना चाहिए ।
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