Book Title: Dharma Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Divine Knowledge Society

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Page 172
________________ १४९ ___केवल तप, उपवास ही नहीं, साथ-साथ सहनशक्ति बढाकर भक्ति के साथ काया को कष्ट आए तो उसे भी सहन करना है, सहने का दूसरा नाम है तप। यह तप किसी भी अवस्था में किया जा सकता है। कच्चे घडे में पानी भरने से घड़ा टूट जाएगा, पानी भी बह जाएगा, परंतु उसे अग्नि में पकाने पर वह पानी भरने योग्य बन जाएगा। वैसे ही तप रूपी ताप सहन करके आत्मा में सहनशीलता की योग्यता बढ़ानी चाहिए, जिससे अमृत भरा जा सके। ऐसी योग्यता के लिए तप की खास जरूरत है, ताकि कडवे धूंट भी पी सके। छः बाह्य छः अभ्यंतर तप से व्यक्ति जब गुजरता है, उसमें पूर्णता आती है। अभ्यंतर तप- प्रायश्चित, विनय, वैय्यावच्च, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग तथा बाह्य तप-अनशन, उणोदरी, वृतिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश, संलीनता से तप स्वाभाविक बनते हैं। व्यक्ति इस प्रकार तप की उपासना द्वारा तपोवृद्ध, ज्ञान की उपासना से ज्ञानवृद्ध तथा चारित्र की उपासना द्वारा चारित्र्य वृद्ध बनता है। जनक राजा एक बार स्वप्न में देखता है कि वह हार गया है, भिखारी बन गया है। अनाज मांगकर पेट भरता है, थोडा शाम के लिए रख छोडता है। वहां लड़ते-लडते दो व्यक्ति आते है, अनाज धूल में मिल जाता है, अब उसे शाम को खाने की चिंता होती है। तभी निंद खुलती है, देखता है कि राज महल में पलंग पर सोया है, और नोकर हाँ जी, हाँ जी कर रहे हैं। दूसरे दिन राजसभा में विद्वानो से पूछते है कि, “एतत् सत्यं वा तत् सत्यम्?'' यह सच है कि वह सच है ? किसीने जवाब नहीं दिया, उन सबको कैद किया। उसी समय वहाँ महान, विद्वान अष्टावक्र सभा में आते हैं, उनके आठों अंग टेढे है, यह देखकर पूरी सभा हँस पडती है, उन सब को देखकर अष्टावक्र भी हंसने लगे। यह देखकर राजाने पूछा, “हम सब तो तुम्हारे टेढे मेढे अंगो को देखकर हसे, परंतु आप क्यों हँसे'' उन्होंने जवाब दिया, “यहां सब चमार इकडे हुए है, और आप चमारों के राजा हो, परंतु जनक विदेही के नाम से जाने जाते हो, यह जानकर मुझे हंसी आई।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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