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१७० जीवन परायों की निन्दा-टीका में गुजार दें, यह कितनी दुःखद बात है?
दूसरों में सद्गुण देखने से वे गुण हमारे भीतर भी आते हैं। इतनी जिन्दगी बीत गई बुराईयां खोजते खोजते। अब थोड़ी जिन्दगी बची है, उसमें सद्गुणों का संचय करना ही आत्मा के लिए हितकर होगा।
यदि हमने किसी पर उपकार किया है, तो याद ही नहीं करना चाहिए, याद करने से इसका महत्त्व समाप्त हो जाता है, सामने वाले को दीनता का अनुभव होता है, हमारे मन में अभिमान पैदा होता है। क्रोध को जीतना सरल है, मान पचाना मुश्किल है।
चंदन घिसने पर सुगंध देता है, पानी तृषा शान्त करता है, पेड़ सबको शीतल छाया देता है। हमें भी ऐसा ही, बिना कुछ कहे, दूसरों का उपकारी बनना है। दायाँ हाथ दान दे और बाँये हाथ को पता न चले, यही सच्चा दान है। जमीन के अन्दर डाला हुआ बीज चुपचाप उगकर बाहर आता है, वैसे ही गुप्त दान ही फलदायी बनता है।
दान देकर हमें हल्कापन महसूस करना है, दान के पैसे अदा करने के बाद तिजौरी का खाली स्थान वापस भरने के लिए, उसके पीछे नहीं पड़ना चाहिए। दान देते समय हमारे भाव उत्तम होने चाहिए, उदारतापूर्वक देना चाहिए, कभी भी दिए हुए दान की चर्चा नहीं होनी चाहिए।
सच्चा धर्म तो यह है कि जिसने हमारा बुरा किया हों, उस पर भी उपकार करो। हमें तो चंदन जैसा बनना है, उसे कुल्हाड़ी से काटा जाए तो भी सुगंध ही फैलाता है। __इन्सान और पशु में अंतर है, पशु अकेला अकेला दूसरे भूखे पशुओं का विचार किए बिना खा सकता हैं, परंतु इन्सान ऐसा नहीं कर सकता। आसपास के लोग भूखे हों तो उन्हें उसमें से कुछ देना चाहिए, ऐसा विचार तो आना ही चाहिए। “परिहितनिरता" में से।
धार्मिक व्यक्ति को ज्ञान का प्रकाश मिला है, उसे यह एहसास है कि उसके सुख के पीछे, कितने अज्ञान व्यक्तियों के हाथ, हृदय का श्रम
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