Book Title: Dharma Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Divine Knowledge Society

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Page 194
________________ १७१ तथा पसीना बहा है। किसी ने मकान बांधा है, किसीने कपडे बुने हैं, किसी ने अनाज उगाया हैं, तो किसी ने विद्या, विज्ञान द्वारा अविष्कार, खोज करके हमें साधन सुविधाएं जुटाई हैं। If I have seen further, it is by standing upon the shoulders of giants. हम जो कुछ देखते है, जानते हैं, वह अनेकानेक लोगों की साधना का परिणाम है। मानव हितेच्छुओं ने अपने गहन चिंतन द्वारा विश्व का परिक्षण निरीक्षण करके, विकास गामी बनाया है। परंतु इन मौलिक सिद्धियों के बीच भी इन्सान आज दु:खी और द्वैषी है, इसका कारण है अज्ञान एवं स्वार्थ। केवल परहित की भावना जाग्रत होने पर ही उसे यह एहसास होता है, कि परोपकार में ही स्वोपकार निहित है। दूसरों को सुगंध देने पर हमें सुगंध, दूसरों के पास दीपक जलाने से हमें प्रकाश स्वत: ही मिल जाते हैं। जिन्हें ज्ञानी का या गुणों का समागम नहीं मिला, ऐसे कई लोग कामचोर बन जाते हैं, दूसरों से अधिक से अधिक काम लेना। उनको चूस लेना, ऐसा उनका लक्ष्य बन जाता है। मंदिर में भी उसके लिए चंदन कोई घीस कर दे, अगरबत्ती जलाकर दे, किराये का पुजारी मंदिर को स्वच्छ रखे, सब काम पुजारी करे और सेवा पूजा का लाभ उसे चाहिए। ऐसी पूजा से कितना लाभ मिल सकता है ? ऐसा इन्सान रात दिन सेवा करने वाले नौकर को सोने के लिए एक गद्दा भी न दे, और स्वयं एअरकंडिशन में मुलायम गद्दे पर आराम से सो जाए, एसी स्वार्थांधता के पीछे अंधा इन्सान, यदि स्वयं के धार्मिक होने का दावा करे तो यह सिवाय ढोंग के और कुछ नहीं है। विद्यासागर एक बार नौकर को न भेजकर, गर्मियों में स्वयं ही जाकर अपना काम कर आए, साइकिल पर। पत्नी ने कहा, “ऐसी धूप में तुम क्यों गये? नौकर किस लिए है?" उन्होंने कहा, "अरे नौकर को पैदल चलकर जाना पडता, मैं साईकिल पर जाकर दस मिनट में काम कर आया। नौकर में भी तो अपने जैसी ही आत्मा है ना?" "परहित निरता" का भाव जगता है, तब सबकी आत्मा समान दिखती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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