Book Title: Dharma Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Divine Knowledge Society

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Page 195
________________ परहित निरतः 'पपरहितनिरतः' यह बीसवां सद्गुण है, और यह अत्यंत उपयोगी है। परोपकार ही स्वोपकार है, यह मानकर आनंद उठाना चाहिए। परोपकार करके उसके बदले में कुछ प्राप्त करने की चाह यदि रखते हैं, और समाज प्रशंसा नहीं करता, सत्कार नहीं देता तब लगता है समाज को कद्र नहीं है। परंतु ऐसी भावना रखे बिना ही व्यक्ति को निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा करनी चाहिए। धर्म तथा जीवन दर्शन को समझने वाला व्यक्ति, दूसरों की सेवा लेना या अपना कष्ट दूसरों पर डालना पसंद ही नहीं करता। अपना बोझ दूसरों पर लादकर, या अपना काम दूसरों से करवा कर, मुक्त होने की भावना, यह एक मानसिक रोग है, जो आज समाज में व्यापक बनता जा रहा है। जहाँ तक हम इन सब बातों का विश्लेषण नहीं करेंगे, जीवन दर्शन हाथ नहीं लगेगा। अणु का विश्लेषण किया जाए तो नयी शक्ति हाथ लगेगी। इसी प्रकार आज हमें अपने धर्म और कर्म का विश्लेषण करने की आवश्यकता है। उत्कृष्ट जीवनदर्शन हाथ लगेगा। इस जगत में, दूसरों का ऋण, कम से कम अपने उपर चढे, ऐसा विवेक रखना चाहिए, क्यों कि कर्मराजा का ब्याज, सब ब्याजों से अधिक है। अत : जितना जल्दी हो सके दूसरों के ऋण से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए। मुफ्त में किसी का न लें, ऐसी दृष्टि रखनी चाहिए, बिना १७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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