Book Title: Dharma Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Divine Knowledge Society

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Page 180
________________ १५७ बहु का जवाब उचित था, उसने कहा, “ माताजी आप अपनी सास को इसमें खाना खिलाती है, जब आप बूढ़ी, बिमार होंगी तब मैं आपको इन में खाना दूंगी, ताकि मुझे नये मिट्टी के बर्तन खरीदने न पडे । " सास समझ गई । हम यदि दूसरों को मान, सन्मान, विनय नहीं देते तो हमें भी अपेक्षा रखने का क्या अधिकार है ? आज हमारे बच्चों के लालन-पालन तथा उन्हें संस्कारवान बनाने में कुछ कमियां रह गई हैं, हम ऐसा तो सोचते हैं । परंतु क्या कमियां रह गई हैं, उसे नहीं खोजते। सही बात यह है कि, विद्यार्थियों को जब विनय सिखाया ही नहीं, तो आज गुरू के प्रति उनके हृदय में आदरभाव कहाँ से आएगा ? जहाँ माँ - बाप ही गुरू के लिए मास्टर आदि छिछोरे शब्दों का प्रयोग करते हैं, तो फिर पुत्र में विनयशीलता कहाँ से आएगी ? एक समय ऐसा था, जब माँ-बाप घर से ही बालकों को बड़ों का आदर सम्मान करना आदि विनय के गुण सिखाते थे, माता, पिता, गुरु, अतिथि को देव समान गिनना सिखाते थे, क्यों कि उस समय ऐसे ही समझा जाता था, तो आने वाली पीढ़ियां भी ऐसा ही मान सन्मान देती थी। और आज ? ज्ञानी गुरुओं के पास से विनयपूर्वक ग्रहण किया हुआ एक शब्द भी जीवन में उतरता था तो गुणरूपी वृक्ष खिल उठता था । दुनिया में सर्व गुणों का मूल विनय ही है, विनय गुण जितना आत्मसात करेंगे ग्रहण की हुयी विद्या में एक नया रंग भरता जाएगा। सफेद कपड़े पर जैसे कोई भी रंग जल्दी ही चढ़ जाता है वैसे ही विनयशील व्यक्ति के मन पर विद्या का रंग जल्दी चढ सकता है। फूलशाल नामक एक छोटा लडका था, पिता से उसने तीन बातें सीखी थी | सन्मान देना, विनय रखना और बडों के वचनों का पालन करना । इन तीनों बातों का पालन वह आजीवन करेगा, ऐसा उसने तय किया । एक बार वह सरपंच के पास, पिता के साथ गया, पिताने उनको नमन किया। फूलशाल को लगा कि उसके पिता जिसे नमन कर रहे है, वे कोई महान व्यक्ति होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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