Book Title: Dharma Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Divine Knowledge Society

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Page 189
________________ १६६ तीसरा उपकार है समाज का । हमारे उत्कर्ष में समाज का बहुत बडा हाथ है, हममें बुद्धिमत्ता भरी है, परंतु समाज की सहायता उसमें परोक्ष रूप से निहित है। यदि हम अपने पैसो का उपयोग अपने मौजशौक के लिए ही करते हैं, तो फिर समाज भी हमारे लिए कुछ क्यों करेगा? पुंजीवाद के सामने साम्यतावाद यूं ही नहीं आया है, हम उसे लाए हैं। पहले धनवान समाज को कुछ अर्पण करते तो समाज उन्हें अग्रिम पंक्ति में बिठाता, आज यदि अपने ही मौजशौक पूरे करने में धनिक लोग लगे हुए हैं, तो फिर ऐसे लोगों की समाज भी क्यों परवाह करे ? जब हमने दुनियां में कदम रखा था, हम रो रहे थे, जगत हँस रहा था, अब हमें ऐसा प्रेममय, करूणामय जीवन जीना चाहिए कि, जब हम यहां से विदा हों तो हम हँसे और जग रोये । संत कबीर ने कहा भी है “जब हम आए जगत में, जग हंसे हम रोए। ऐसी करनी कर चलो, हम हंसे जग रोए ।। " भले लोगों का वियोग सबके लिए दुःखदायी होता है, परंतु उनके देह के लिए नहीं, उनकी उदारता, महानता के लिए उन्हें याद किया जाता है। -- यह कृतज्ञता गुण े में चार बातें सिखाता है, किसी ने अपने पर उपकार किया हो तो कभी भूलना नहीं। किसी पर हमने उपकार किया हो तो, उसे याद नहीं करना । किसी ने हम पर अपकार किया हों तो उसे माफ कर देना । और हमसे किसी पर अपकार हो गया हों तो उससे माफी जरूर मांग लेनी चाहिए। धर्म का बीज जागृति में है, उपकारों की प्रेमभरी यादों में है । एक वृद्धा यात्रा करने निकली, रास्ते में एक कुत्ते ने उसका भोजन खा लिया। वहाँ एक बनजारा आया और खाना खाने लगा, उसने उस वृद्धा को भी खाना खिलाया, बनजारे में मानवता थी, दोनों ने प्रेमपूर्वक भोजन किया। जब दोनों जाने लगे, उस औरत ने कहा, "इस अन्न का ऋण मैं कब, कैसे चुकाऊंगी? खाकर खुश होना यह मेरा गौरव नहीं है, गौरव तो खिलाने में है ।" बनजारे ने कहा, “आपने मेरा अन्न खाकर मुझ पर उपकार किया है, अन्न सफल हुआ है।" उस महिला ने जाते हुए कहा, " मेरा नाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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