Book Title: Dharma Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Divine Knowledge Society

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Page 173
________________ १५० राजा ने कहा, “आप हमें चमार कहने वाले कौन होते हो?" उन्होंने कहा, मैंने आपको चमार इसलिए कहा क्यों कि सबने मेरी चमड़ी देखी, और हंसने लगे अंदर बसी हुई ज्ञान ज्योत, दिव्य आत्मा को देखने का प्रयत्न किसी ने नहीं किया। चमड़ा कौन देखता है? चमार न। आज हम भी लोगों के बाह्य रूपरंग देखते हैं, परंतु यदि भीतर बसी हुई आत्मा को पहचानने का प्रयत्न नहीं करेंगे, तो आत्मज्ञान कहाँ से प्रगट होगा? एक छोटी सी चींटी को देखकर हमें ऐसी संवेदना जगती है ? कि उसे भी सुख प्रिय है, मीठा भाता है, शांति की छाया अच्छी लगती है, उसके भीतर भी हमारे जैसी ही आत्मा का निवास है। सभी प्राणियों के प्रति समभाव जाग्रत होता है। अत: बाह्य आकार को न देखकर भीतर की सुंदरता के दर्शन करना सीखना चाहिए। चलिए, हम नरनारी के रूप के पीछे बसी आत्मा के दर्शन करें "नर नारी ना रूपमां हाड, चाम ने मांस, शुं ऐने ज सुंदर कहो, जेमां दुर्गंध खास।" एक्सरे में जैसे शरीर के अन्दर के अंगो का प्रतिबिम्ब पडता है, वैसे ही हमें भी देह के पीछे बसी आत्मा के दर्शन करने हैं। - जनक राजा समझ गये कि इसके अंगोपांग टेढे मेढे हैं उम्र छोटी है, परंतु ज्ञान में वयोवृद्ध है। जनक ने वह प्रश्न पूछा “एतत् सत्यम् वा तत् सत्यम्" दोनों में से सच क्या है ? ऐसे प्रश्नों का उत्तर संस्कृत, प्राकृत या शास्त्र पठन से नहीं मिल सकता। यह तो जिसके अंतरद्वार खुल जाते हैं, आंतरिक खजाना प्राप्त होता है वही दे सकता है। शास्त्रों को बराबर समझे, शास्त्र तो वो सीढ़ि है जो आचरण से उपर चढाए, और अहं से नीचे गिराए। दोनों ही सम्भव है। उपर चढ़ने का काम अनुभव और अभ्यास की साधना से स्वयं करना है। अष्टावक्र ज्ञानवृद्ध थे, प्रश्न का जवाब दिया, “तदापि असत्यम् एतदपि असत्यम्।" यह भी असत्य है स्वप्न भी असत्य है। आँख बंध हों तो वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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