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आदर करना चाहिए, अपने विचार पेश करने की स्वतंत्रता सबको मिलनी चाहिए।
अधिकतर परिवारों में विचार-स्वातंत्र्य दिखाई नहीं देता, पिता-पुत्र, सासु-बहु, राजा-प्रजा के बीच ऐसा व्यवहार होना चाहिए। तानाशाही किसी पर नहीं चल सकती, हाँ दो जगह चल सकती है। एक तो निर्बल पर तथा दूसरी धार्मिक लोंगो पर, जो क्षमाशील होते हैं, परंतु ऐसे लोग बहुत कम होते है।
जरा सोचिए! पाँच बेटे होते हुए भी जिन माता-पिता को रोने के दिन देखने पड़ते हैं ऐसी दशा क्यों? क्यों कि आपस में आनंद तथा समाधान से एक दूसरों को सहन नहीं करते। सबको अपने विचार प्रदर्शन का मौका मिलना चाहिए। धीरे धीरे सबको समझा-बुझाकर घर में मनमेल तथा शांति स्थापित की जा सकती है, वरना जोर-जबरदस्ती करना बेकार है।
विचारों की उदारता का ही दूसरा नाम है स्यादवाद। जीवन के प्रत्येक अंग में स्यादवाद की अपेक्षा और समीक्षा है, यह केवल शास्त्रों की ही पंक्तियां नहीं हैं इसका संबंध जीवन के प्रत्येक आचार के साथ है। जो शास्त्र व्यक्ति के जीवन में प्रेरणारूप बनकर तानेबाने की भांति एकरूप न हो जाए, तो वह केवल बोधमात्र है। अतः ज्ञानियों ने जो फरमाया है, उसका आचरण करके जीवन को लाभान्वित करके, आपसी संबंधो में समाधान लाना, इसी का नाम स्याद्वाद है।
हम यहां एक उदाहरण देखते हैं - पिता तथा पुत्र रोज साथ खाना खाते हैं, एक दिन अनबन हो गई पुत्र ने कहा, "मैं आपके साथ खाना नहीं खाऊंगा।" पिता समझदार थे, स्याद्वाद के उपासक थे, अकेले खाना कैसे खाते भला? थाली लेकर पुत्र के पास जाकर बोले "तुम मेरे साथ नहीं बैठो तो कोई बात नहीं, मुझे तुम्हारे साथ बैठना है।" बेटे का अह्म प्रकट हुआ “मैं नहीं, पिताजी मेरे साथ बैठे।" यह सोचकर खुश हुआ। पिताने सरलता अपनाई तो पुत्र का समाधान हो गया। इसी का नाम है स्याद्वाद।
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