Book Title: Dharma Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Divine Knowledge Society

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Page 108
________________ है। जब से इस जन्म मरण की गाड़ी में हम बैठे हैं, तब से यह अपने अंतिम ध्येय की ओर आगे बढ़ती ही जा रही है। बातों में और प्रवृत्ति में जीवन बीत रहा है, काल के प्रवाह में इस जीवन प्रवाह को हमें ध्यान से देखना है। क्षण-क्षण के अनंत खंडो से बना यह जीवन का काल प्रवाह कैसा अखंडता का भ्रम पैदा करता है? काल के इस प्रवाह में कभी न कभी तो दो आत्माएँ अलग होने ही वाली है। नेम-राजुल की जोड़ी जैसी उदात्त, उर्ध्वगामी बनने की कल्पना हमें कभी आती है? मोक्ष में भी यदि हम साथ रह सकें तो इसी का नाम आदर्श जीवन है। ऐसे जीवन में एक दूसरे के पूरक बनकर रहना है। जहाँ जीवन में मर्यादा, संयम होना चाहिए वहाँ आज पशुता के दर्शन होते हैं। श्रवण किए हुए विचारों का चिंतन होना चाहिए, जिससे हम उर्ध्वगामी बन सकें। माँ हाथ पकड़ कर बालक को एक-एक सीढि चढाती है, वैसे ही ज्ञानी धर्मरूपी सीढ़ियों पर चढ़ कर उपर ले जाता हैं। इसमें एक सीढ़ि सुदाक्षिण्य भाव की है, इस भाव को धारण करने वाला व्यक्ति स्वोपकार के साथ परोपकार करने से भी पीछे नहीं हटता। एक गाँव में एक फौजदार बहुत क्रूर था, उसकी एक आँख नकली थी, पर इतनी सुंदरथी कि कोई जान ही नहीं पाता था, कि वह नकली है। उसके पास एक चतुर अपराधी आया, उसने सोचा इसकी परीक्षा ली जाए। उसने अपराधी से कहा “मेरी कौन सी आँख नकली है? सही जवाब देने पर तेरी सजा माफ कर दूंगा।" अपराधी ने कहा, “बांयी आँख।" फौजदार ने कहा, “तुमने कैसे जाना?'' उसने कहा, “आपकी बांयी आँख में मुझे दया का अंश दिखाई देता है।" कहने का आशय था कि सच्ची आँख में केवल क्रूरता है, दाक्षिण्य भाव नहीं है। फौजदार को एक नयी सीख मिली। जहाँ स्वार्थ है, वहाँ से सुदाक्षिण्य भाव विदा हो जाता है, दुनिया में हम आए हैं तो दुनिया के काम हमें करने चाहिए। कम से कम रोज एक काम हम परोपकार का करें ताकि रात्रि में सोते वक्त उसका सात्विक आनंद उठा सकें। जिसे दूसरों की पीड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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