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करने से दूसरे तारों में भी झंकार पैदा होती है, वैसे ही आसपास के जीवों संग, सहानुभूति पूर्वक जीएंगे तो पूरे विश्व के संग तादात्म्य स्थापित होगा ।
मान लिजिए कि आपको किसी को गाली देने का मन हुआ, तो पहले यह गाली अपने नाम के साथ जोडकर देखिए, यदि आपको पसंद नहीं तो दूसरों को कैसे पसंद आएगी? उसे छोड़ दिजिए । शब्दों को पहले तोलिए, फिर बोलिए। ऐसे विचार, क्रिया विश्व के साथ अनुभूति, संवेदना के तार जोड़ेगी ।
एक बनजारे ने सुनार की दुकान पर जाकर कहा, "मुझे यह सोना बेचना है, क्या भाव लगाओगे ?" सुनार ने कहा “एक रूपये तोला ।” बनजारे ने सोचा “फिर तो मैं ही क्यों न खरीद लूं।" उसने सुनार से कहा, "मुझे १०० तोले सोना तोल दो, १०० रूपये का ।" तब सुनार बोला, "मैरे सोने का भाव तो १०० रूपये तोला है ।" हमें इस बात का आश्चर्य होगा कि लेने और देने के भाव में इतना अंतर ? परंतु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ऐसा ही चलता है । "मेरे प्राण ! सौ रूपये तोला, महंगा । दूसरे के प्राण ! एक रूपये तोला, सस्ता । मैं घाटे में न आऊं, चाहें सारी दुनिया घाटे में जाए ।"
अपनी एक की सुख सुविधा के खातिर हम न करने योग्य काम करते हैं । एक आदमी को फूलों की शय्या पर सोने का शौक था, माली को रोज फूल लाने का हुक्म दे रखा था। अपने शौक की खातिर हजारों फूलों की जान लेना कहाँ तक उचित है ?
छोटे से छोटे जंतु के प्रति भी हमारी दयालुता भरी संवेदना जगनी चाहिए। जब तक ऐसी आत्मीयता, आत्मसात नहीं होगी, दया धर्म की बातें केवल बातें ही रहेंगी ।
आत्मीयता यानि मेरी आत्मा जैसी ही सभी की आत्मा है, इतनी ही कीमती है । बंगाल के दुष्काल और जापान के भूकंप में अनेक लोगों की मृत्यु की तुलना में हमें एक छोटेसे फोड़े का दर्द अधिक महसूस होता है । जगत के दुखों से हमें अपने एक दांत का दर्द अधिक पीड़ाकारी लगता है। जब तक हमारी दृष्टि हमारे स्वार्थ तक ही सीमित रहेगी, अहिंसा भाव, विश्व मैत्री
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