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सेवा करूं?'' तब वो कांपते कांपते मन ही मन बोला, “अब तो लकडी जलानी ही बाकी है।'' देखिए, दोनों की सेवा एक जैसी थी, मगर काल देश, परिस्थिति को ध्यान में लेकर करनी चाहिए, इतना विवेक उसमें नहीं था। धर्म का आचरण भी देश व काल के अनुसार करना चाहिए, नहीं तो उसकी भी हंसी उडाते हैं लोग। एक समय में धार्मिक जूलूस धर्म प्रभावना के लिए निकलते थे, आज तो वहीं पर काले धन का प्रदर्शन होता है।
एक पुराना मंदिर होता है, उसी के पास नये मंदिर का निर्माण किया जाता है, पर पुराने मंदिर का जिर्णोद्धार करवाने का विवेक जागृत नहीं होता। आज राजस्थान में कितने ही मंदिर जीर्ण अवस्था में हैं।
हमें काल, समय का विवेक रखना जरूरी हैं, बिना विचार पूर्वक की गयी प्रवृत्ति से धर्म के नाम पर अधर्म हो जाने का भय रहता है। धर्म यानि विवेक का सार, विवेकी इन्सान ही खरे, खोटे का फैसला कर सकता है। पुराना है इसलिए अच्छा है, ऐसी बात नहीं। अच्छा है, इसलिए अच्छा है, ऐसा स्वीकार होना चाहिए।
सत्कथा चाहें जितनी लम्बी हों, विवेकी उसमें से सार ग्रहण कर लेता है, गलत को छोडकर सही ग्रहण कर लेता है। श्रीपाल की कथा सुनकर, यह नहीं कहता कि श्रीपाल ने नौ पत्नीयां की तो मैं दो रखू, तो क्या गलत है? महाभारत पढ़कर कोई स्त्री तर्क नहीं करती कि द्रौपदी जैसी महासती ने पाँच पति किए तो मैं भी दो-तीन करूं तो क्या बुराई है? या फिर कोई जुआरी ऐसा कहे कि धर्मराज युधिष्ठिर ने तो पत्नी को दाँव पर लगाया था, फिर मैं जुआ खेलूं तो क्या बुरा है? इस तरह यदि विवेक नहीं रखा और हर कथा में से न लेने योग्य बातें ग्रहण करेगा तो संघर्ष ही पैदा होगा। अत: हर जगह विवेक अत्यावश्यक है।
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