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ग्रहण करने की दृष्टि नहीं रखेंगे तो जगत में से कितना कुछ अच्छा चला जाएगा। अच्छा लेना चाहिए और यदि समझ न आए तो जिन्होंने समझा है, उनका अनुसरण नम्रतापूर्वक करना चाहिए ।
हरिभद्र भट्ट यानि मेवाड के समर्थ विद्वान, उन्होंने एक नियम रखा कि अच्छा जहां से मिले ग्रहण करना, और यदि समझ में न आए तो पूछना, और यदि वो उनकी शंका का समाधान कर दें तो उन्हें गुरू मानकर, उनके शिष्य बन जाना।
एक बार उनके कानों में आवाज आई " चक्री दो चक्री " ऐसी कुछ गाथा रट रही थी, एक साध्वीजी । उन्हें अर्थ समझ नहीं आया, तो उनके पास जाकर विनम्रता से पूछा शिष्य बनकर । आज तो कई लोगों को कुछ नहीं आता, तब भी जानने का दंभ करते हैं, और गुरू बनकर सीखने बैठ जाते हैं। ऐसे लोगों को विद्या नहीं आती, और आ भी जाए तो वो काम नहीं आती। विनय से प्राप्त विद्या ही संजीवनी बन सकती है। दुनिया की सभी वस्तुऐं मारक बन सकती हैं, केवल विद्या ही तारक बन सकती है, विद्या ही इन्सान को सद्गति दिला सकती है, विद्यारूपी नौका से तो हम भवसागर तैर सकते हैं। विद्या प्राप्ति के लिए शिष्य बनना जरूरी है, अपने में विनय तथा नम्रता होने चाहिए ।
दत्तात्रेय ने ज्ञान की खातिर एक कुत्ते को गुरू माना था, उनके चौबीस गुरूओं में एक कुत्ता था, जिससे उन्होंने वफादारी का गुण सीखा। दूसरा गुरू हंस था, जिससे विवेक सीखा, बगुला तीसरा गुरू, जिससे ध्यान की एकाग्रता सीखी। लक्ष्य प्राप्ति के लिए सावधानी का गुण कौओ से सीखे, इन्होंने सृष्टि के कईं प्राणियों को गुरू बनाया और उनके पास से कुछ न कुछ सीखा । हम तो ज्ञानी को भी गुरू नहीं बना सकते, तो क्या सीखेंगे ? आज तो हम निर्गुणी बन रहे हैं। आज गुरू जैसा तत्त्व ही कहाँ रहा है ? जो व्यक्ति स्वयं को पंडित मानता है, वह दूसरों के पास से क्या सीख सकता है ? आत्मा के उत्कर्ष के लिए तो बालक जैसा निर्दोष बन जाना चाहिए । हरिभद्र बालक
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