Book Title: Dharma Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Divine Knowledge Society

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Page 150
________________ १२७ दूसरे में मिल जाती है, और प्रकाश भी बढता है। यदि अपने जीवन में कोई ऐसी ज्योति न मिले जिससे तादत्म्य स्थापित हो सके तो अन्य अच्छे लोगों के सदाचरण का अनुकरण करने या हमेशां अच्छी बातों का चिन्तन मनन करके अपनी आत्मज्योति को और प्रखर बना सकते है। तेजोदीप्त कर सकते हैं। आखिर कब तक हम दूसरों द्वारा टीका-निन्दा किए जाने के भय में जीते रहेंगे? इस लिए अन्दर बाहर के विभाग नहीं होने चाहिए। निर्भय बनने के लिए विचार, वाणी एवं करनी की एकरूपता जरूरी है। जीवन में यदि विषमता रूपी गांठ है तो धर्मरूपी धागे में सुई बीच में ही अटक जाएगी, जीवन में धर्म की प्रगति रूक जाएगी। हमारी मंजिल हमें तय करनी चाहिए, जीवन में ध्येय होगा तो जिन्दगी जीने लायक लगेगी। आज कई लोगों के पास जीने का कोई उदेश्य नहीं है, इसलिए जीवन दुःखद लगता है। आखिर जीवन में आनंद क्यों नही रहा? इन्सान इतना छोटा क्यों हो गया है? खाने, पीने, रहने, पहनने के साधन हमें मिलने के बावजूद भी हमारा जीवन विषाद से भारी क्यों बन रहा है ? जीवन में से प्रसन्नता तो जैसे नेस्तनाबूत ही हो गई है। यह प्रश्न विचारणीय है। जरा सोचिए कि जीवन के पचास वर्षों में हमने क्या प्राप्त किया? क्या बची हुई जिंदगी भी यूं ही जीनी है ? अमूल्य मानव भव यूं ही बीत रहा है, बाल्यकाल, यौवन गये, अब वृद्धावस्था आ गई है, अब तो वक्त आया है, अपने आप से मुलाकात करने का। निश्चित होकर अंत:करण के आनंद की अनुभूति करनी है। वृद्धावस्था तो थोड़ी देर का आराम है। यौवन का अहम् और कामनाओं का . भार छोडकर वृद्धत्व का आनंद उठाना चाहिए। वृद्धावस्था यानि अनुभव और विचारों की मधुरता को और अधिक बढ़ाने की अवस्था। इन्द्रियां शान्त हो जाती हैं, जीवन की कलुषितता चली जाती है, तथा अनुभवों द्वारा जीवन को प्रकाश मिलता है, यह ऐसी अवस्था है। बाल्यकाल में धूल में खेलने में, खिलौनों में मन रहता है, यौवनावस्था में काम में, भोगविलास तथा राग के साधनो की प्राप्ति का प्रयास रहता है। हए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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