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एक बहुत ही सज्जन आदमी था, बडा सदाचारी था, एक बार प्रवास में जाते हुए उसके पाँव कट गये वह पंगु बन गया। उसकी औरत उसे अच्छी तरह जानती थी कि वह कैसा सज्जन व सदाचारी है ? उसने कहा कि उसका सब काम वह करेगी। वह औरत सवेरे घर का काम निपटा कर, खेत में काम करने चली जाती, फिर शाम को घर आकर काम करती। पति ने सोचा उसकी
औरत कितना काम करती है? थोडा काम उसे कर लेना चाहिए, अब वह एक जगह बैठकर एक समय का खाना बनाकर रखने लगा, दोनों एक दूसरे के पूरक बने। - उसने गाँव के लोगों से भी कहा, “मैं और तो कोई सेवा नहीं कर सकता, परंतु कोई साधु, संत, जैन यति आए तो मेरे घर भेजने का पुण्य कमाना।'' फिर जो भी संत आते वो सब उस सज्जन के घर जाते, वो प्रेम से सबको रोटी और छास देता। वो कहता, “मैं घर में बैठा बैठा खाऊं, उससे अच्छा साधु, संतो, आगन्तुकों की सेवा करके, थोडा दान देकर खाऊं तो क्या बुरा है? ऐसा दान देकर मैं अपना जीवन धन्य बनाऊंगा।"
ऐसा व्यक्ति करोडपति की तुलना में अधिक सुखी है। कारण यह है कि वह परिश्रम करता है, साधु संतो की सेवा करता है, भक्ति करके खाता है। फिर संतोष और आनंद से रात्रि व्यतीत करता है।
जिंदगी का मापदंड पैसा, धन, सत्ता और अधिकार ही नहीं है, परंतु यह बात कब समझ में आएगी? अच्छी बातें तो अभी सुनी और सीढ़ियां उतरते ही भूल जाते हैं, दुनिया की बातों का इतना गहरा असर हमारे मनमस्तिष्क पर हो रहा है कि अच्छी बातें भी अधिक समय याद नहीं रहती।
अतः सुपक्ष के कुटुंब में सभी सदस्य धर्मशील होते हैं, दो में एक धर्मी व दूसरा अधर्मी हों तो कलह होता है। पति यदि मांसाहारी है तो पत्नी को अनिच्छा से भी देर-सवेर अपनाना ही पड़ता है। इस तरह दुराचार जल्दी आ जाता है, सदाचार को आने में समय लगता है। पान के सौ पत्तों में से एक भी पत्ता यदि सड़ा हुआ हों तो वह सभी में दाग लगता है। उपाध्याय यशोविजयजीने कहा है -
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