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गुणानुराग
आज हम बारहवें सद्गुण गुणानुराग का स्वाध्याय करेंगे। हमने अनादि काल से दूसरों के दोष ही देखे हैं, गुण देखना तो हमने सीखा ही नहीं, इसीलिए कागदृष्टि सरल है, हंसदृष्टि लाना कठिन है।
गुणानुरागी इन्सान दूसरों के गुण देखने का प्रयत्न करता है, गुणी का बहुमान करता है, प्रशंसा करता है। एक कुशल व्यक्ति चाहें तो पत्थरों में से सच्चे रत्न ढूंढ ही लेता है, वैसे ही गुणानुरागी व्यक्ति दूसरों के गुण ग्रहण करके स्वयं भी गुणों का भंडार बन जाता है, इसे हंसदृष्टि कहते हैं।
एक बार इन्द्रसभा में चर्चा चली कि श्रीकृष्ण गुणवानों की कद्र करनेवाले, गुणानुरागी है। यह सुनकर एक ईर्ष्यालु देव कुत्ते का रूप धारण करके बीच राह पर खड़ा था। खुजली से उसके शरीर का बुरा हाल था, लटकते हुए कान, दुर्गंध मारती काया। श्रीकृष्ण वहाँ से गुजर रहे थे, दूसरे वहाँ से गुजरने वाले तो मुंह फेर लेते थे, या मुंह पर कपड़ा रख कर गुजरते थे। मगर श्रीकृष्ण तो गुणानुरागी थे, उन्होंने उसके दांत देखकर कहा, “इसके दांत कितने सुंदर है? जैसे दाडम की कली।" यह सुनकर श्वान के रूप में आया हुआ देव, उनके चरणों में गिर पड़ा, कहने लगा, “हे भगवन्! श्वान के दुर्गुण देखने वाले तो बहुत थे, मगर अच्छाई देखने वाले तो केवल आप ही निकले। में आपको वंदन करता हूं।" हमारी इस छोटी सी जिन्दगी का एक चौथाई भाग खाने में और एक चौथाई भाग सोने में व्यतीत होता है, दूसरे आठ घंटे कामधंधे
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