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मंत्री के साथ लोग दान देने हेतु मीठी प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं । " गले में रत्नों की मालाएं धारण करने वाले शेठ लोगों के सामने मेरे डेढ रूपये की क्या कीमत? ऐसे कपडो में मुझ जैसे निर्धन को खडा भी कौन रखेगा ?” दूसरों का वैभव देखकर उसका मन भर आया, सोचने लगा “मैं कैसा अभागा ?"
आकर एक पेड की छाँव में बैठ गया। उसके मन में उथल-पुथल चल रही थी “मैं वहाँ गया, परंतु मैंने मंत्री को ऐसा कब कहा कि लो ये मेरी भेंट | यदि ऐसा करने के बाद स्वीकार नहीं किया होता, तो में समझता कि मैं अभागा हूं। मुझे वापस जाना चाहिए।" फिर हवेली के पास आया, मंत्री की नजर उस पर पडी, मंत्री ने सोचा, “ शायद उसे पैसों की जरूरत है, मुझे देने चाहिए।” यह सोचकर वह भीमा के पास आए, सब काम छोडकर क्या हम ऐसा सोचते हैं ? जब ऐसा भाव जगेगा, तब ही उपासना के साथ दान भी होगा। परंतु हम तो हमारे नाम पत्रिका में छपें, मूर्तियों के नीचे भी अपने नाम खुदवाऐं, ऐसी चाह रखकर ही दान देते हैं। यह लालसा, ऐषणा, सद्भावों का नाश करती है ।
मंत्री उठे, साथ ही तारामंडल जैसे सभी श्रेष्ठि भी उनके साथ भीमा के पास आए। उसके कंधे पर हाथ रखकर पूछा, “बोलो तुम्हें क्या चाहिए भाई ?” उसके हृदय में आल्हाद की लहर दौड गई, "इतने बडे शेठ ने मेरे कंधो पर हाथ रखा । "
गद्गद् स्वर में भीमा ने कहा “मुझे कुछ भी नहीं चाहिए, मैं तो कुछ देने आया हूं। गांठ खोली, डेढ रूपया निकाला, शेठ को दिया, उन्होंने हाथ पकडकर मखमल के गलीचे पर बिठाया ।" भीमा ने कहा कि उसके पैर गंदे है, मगर मंत्री उसके दान भाव जान गये थे, उन्होने कहा “तुम्हारी चरण रज तो कुंकुम के समान है, तुम्हारा दिल तो सागर के समान विशाल है, हम तो लाख में से हजार दे रहे हैं, तुम तो अपना सर्वस्व देने आए हो, तुम हमारे पूज्य हो ।" और मंदिर के जिर्णोद्धार में उसका नाम प्रथम लिखा गया, उसका दान सबसे बडा दान हुआ। कारण ? उसके लिए दान चेतना का विकास बना, अंदर का आल्हाद बना, सर्वस्व परित्याग की भावना बनी ।
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