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है “यदि भूल से भी सोना मिला है तो प्रमाद तो देने वाले का है, उसकी लापरवाही है, रख ले।"
पूरी रात मन में द्वन्द चला, सो न पाया सुबह घूमने निकला, सामने से फिर वही आदमी मिला, उसने पूछा “क्यों भाई आज भी चने-कुरमुरे चाहिए?" उसने जबाव दिया “नहीं आज तो मैं आपको यह सोना वापस देने आया हूं।"
उसने पूछा “क्यों तुम्हारा रखने का मन नहीं हुआ?' जवाब मिला "हुआ था मगर मेरे अंतर मन में भारी युद्ध चला मन तथा आत्मा का।" मन ने कहा, 'सोना रख ले', आत्मा ने कहा 'वापस दे दे।' यह आपको वापस लौटा कर मुझे यह झगड़ा खत्म करना है। यह सुनकर दूसरा व्यक्ति इतना खुश हुआ कि बस “इतना गरीब होते हुए भी तेरी आत्मा कितनी जाग्रत है? मुझे ऐसे ही मित्र की तलाश थी, तू मेरे साथ चल।"
आज हम में से इस तरह जागृत मन वाला कोई नहीं, हम अपनी आत्मा की आवाज सुनने को तैयार ही नहीं, वरना अंतरात्मा से सही गलत की आवाज तो आती ही है। ‘पर्वत पर प्रवचन' "Sermon on the mount" में इसामसीह ने कहा है
एक औरत से उसके जीवन में अनाचार का सेवन हो गया, तब ऐसा नियम था कि ऐसी भूल करने वाले को लोग पत्थरों से मारे। लोग मारने के लिए इकट्ठे हुए, औरत वहाँ से भाग खडी हुई। पहाड के पास झोपडी में एक संत रहते थे, वहाँ आकर वह छुप गई, संत को बताया लोग उसे मारने आ रहे हैं, उसने जीवन रक्षा की भीख मांगी। संत की समझ में बात आ गई कि इस औरतने अनाचार किया है, परंतु अब वह तीव्र पश्चाताप कर रही है। केले के छिलके से फिसलने की इच्छा किसी की नहीं होती, मगर संयोग से इन्सान गिर भी जाता है। ज्ञानी इस बात को समझते हैं, इसीलिए भूल करने वाले के प्रति करूणा बहाते हैं, उनके अंतर में खूनी के प्रति भी करूणा, क्षमा, दया होती है। आखिर तो इन्सान ही है न, भूल हो भी सकती
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