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७३ शेठ पर सम्पूर्ण श्रद्धा थी, उनके मन, वचन, काया के सामंजस्यपूर्ण संगीत को जीवन भर सुना था, इसीलिए गाँव चाहें जो कह रहा था, मगर उसे सम्पूर्ण विश्वास था अपने पति पर। शासन देव पधारे, उसकी अपूर्व श्रद्धा से शूली भी सिंहासन बन गया, इस तरह इन्सान अपने गृहस्थाश्रम को पवित्रता द्वारा स्वर्ग बन सकता है। परंतु अंतर्वृत्ति न बदले, तब तक जीवन परिवर्तन नहीं हो सकता, इसके लिए प्रथम मन को बदलना जरूरी है। जिसे साधु बनना है, उसे अपनी वृत्तियों को विरक्त बनाना है। जो विरक्त नहीं, वह साधु बनकर भी छुपके छुपके धन, मान, वस्तुओं का संग्रह ही करेगा, क्यों कि उसकी वृत्तियां बदली नहीं हैं।
वृत्तियों की निर्मलता ही धर्म है, वृत्तियां निर्मल बनती हैं, फिर संग्रह वृत्ति छूट जाती है। परिग्रह भाररूप लगता है। जैसे बालों के बढ़ने पर भार महसूस होता है। ऐसे ही शुद्ध वृत्ति वाले व्यक्ति को परिग्रह बढ़ने पर भाररूप लगता है। अतः वह भार कम करने के लिए दान की सरिता प्रवाहित करता है।
__ आज के धनिक समझते हैं कि साधुओं को भी उनके बिना कहाँ चलने वाला है? और वो समाज के उद्धारक हैं, ऐसा गर्व करते हैं। इस दृष्टि को बदलने की आवश्यकता है।
__ आज से सोलह वर्ष पहले की यह बात है, एक सज्जन संस्था का संचालन करते थे। उनके पास एक अन्य सज्जन आए और कहा “ये तीन लाख रूपये ले लो।' सज्जन ने मात्र एक लाख ही लिए, दूसरे वर्ष फिर आए, तब भी उन्होंने एक लाख रूपये ही रखे, तीसरे वर्षभी ऐसा ही किया। उन सज्जन ने प्रेम से पूछा, “आपने एक साथ तीन लाख क्यों नहीं रखे?' दूसरे सज्जन ने जवाब दिया, “यदि एक साथ रखे होते तो आपको गर्व आ जाता, दान नम्रता के बदले अहंकार में बदल जाता। पैसे के लेन-देन से व्यक्ति का दान भाव अधिक बड़ा है। बड़ी रकम को बैंक में जमा कराने जाना पडता है यह तो ठीक, परंतु निस्वार्थ भाव से काम करने के लिए मदद मिल ही जाती है, यह मेरी श्रद्धा और विश्वास है। यदि तीन लाख रूपये एक साथ ले लेता,
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