________________
७८
किए यह साधु गुणानुरागी था, शेठ ने उन्हें उपदेश देने को कहा, तब उन्होंने कहा कि उपदेश तपस्वी साधु देंगे। अब शेठ तपस्वी और आडंबरी साधु के पास आए, उस साधुने तो गुणानुरागी साधु की निन्दा करनी शुरू कर दी। ऐसा करने से आडंबरी साधु की भवपरंपरा बढ़ गई और उस सरल साधु को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई।
इन्सान इतना बौना बन गया है कि दूसरों की विराटता के दर्शन कर ही नहीं सकता। स्वयं छोटा है, यह जानकर उसे इर्ष्या होती है। परंतु जब विराटता आती है, तब अपने बडे सद्गुण छोटे लगते हैं, और दूसरों के छोटे छोटे गुण बडे दिखते हैं। जो अपने को छोटा तथा दूसरों को बड़ा समझता है, वही जीवन में विकास कर सकता है, कहा भी है कि
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यम्। निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः।।
अपना कार्य दूसरों की अनुमोदना करना है, न कि निन्दा करना, वास्तविकता को देखने वाला अपनी भूल देख सकता है, इसीलिए उसके सुधरने की संभावना रहती है।
अकबर ने एक बार बीरबल से कहा कि, “इस मेरी लाइन को बिना काटे छोटी कर दो।" सबने सोचा यह कैसे हो सकता है ? परंतु बीरबल ने उस पंक्ति के पास ही दूसरी बडी रेखा खींच दी, वह रेखा स्वतः छोटी हो गई।
हमें यह बोधपाठ लेना चाहिए, दूसरों को छोटा बनाने के बजाय, हमें विराट, बडा बनने के कोशिश करनी चाहिए। यदि हम ईर्ष्या वश होकर दूसरों को छोटा दिखाने की कोशिश में ही लगे रहेंगे तो हम बडे कब बनेंगे?
दुनिया सद्गुण, दुर्गुण के भेद पूरी तरह समझती है, उसे समझाने की जरूरत नहीं। हमें दूसरों को दुर्गुणी न कहकर स्वयं सद्गुणी बनने का प्रयत्न करना चाहिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org