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देता है। सच्चे साधु तो संसार रूपी बगीचे में खिले पुष्पों पर गुंजन करने वाले भ्रमर हैं, जो किसी भी पुष्प को छुए बिना, उसे पीडा पहुंचाए बिना, आनंद प्राप्त करते हुए, अपनी तथा दूसरों की आत्मा को, परितृप्त करते हैं। विहरते हैं।
सच्चे साधु जिनकी आत्मा में त्याग का रंग भरा हुआ है, वे सभी विघ्नों का प्रसन्नतापूर्वक सामना करते हैं। परंतु आज के कई साधुओं की साधुता का रंग कच्चा होता है। हमें तो चित्र की अविकल्प दशा प्राप्त करनी है, प्रभु भक्ति की सच्ची प्रभावना बिना, धर्म अमृत की प्राप्ति नहीं हो सकती।
राजा सोचता है कणाद के पास भला ऐसा क्या है? रात को राजा कणाद के पास आता है, उसके पाँव दबाता है, कणाद उठ जाता है, पूछता है, “हे राजन! आप मेरे पाँव दबा रहे हैं?" मेरे जैसा भिखारी जो दिन में भी आपके वहां भीख मांगने नहीं आया, उसके पास रात को अनुचर के वेश में क्यों आए हो?"
राजा कहता है, "आप स्वर्ण सिद्धि जानते हैं, मुझे बताईये।" कणाद ने हँसकर कहा “परमात्मा ही पारसमणि है, जो जीवनरूपी लोहे को स्पर्श करे तो काया स्वर्ण स्वरूपी बन जाए।"
राजा की समझ में यह बात आ गई, कि सोने की सिद्धि से भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती, सोने की दीवारें मृत्यु को नहीं रोक सकती। आत्मा रूपी लोहे के साथ परमात्मारूपी पारसमणि के संयोग से आत्मा परमात्मा स्वरूपी बन जाती है। जिसे संतोषरूपी स्वर्ण मिल जाए, उसके जैसा धनाढ्य कोई नहीं, संतोष ही सुख है।
क्रोध, मान, माया, लोभ जीवन में दीमक के समान है, इनके उपर विजय प्राप्त करने से हाथ में खरोंच लगने की संभावना है, जब कि लकडी को चिकना बनाकर हाथ फेरने में कोई भय नहीं। इसी तरह प्रकृति का सौम्यत्व दिल और दिमाग की कोमलता है।
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